Friday 9 December 2011

ग़ज़ल



ज़िन्दगी तेरी तल्खी गर शराब जैसी है ,
प्यास मेरी कब कम है, बेहिसाब जैसी है .

सच तो ये है जानेमन हम भी एक हस्ती हैं ,
हाँ मगर यह हस्ती भी बस हबाब  जैसी  है .

होश में या नश्शे में कर तो ली थी कल तौबा,
आज फिर मेरी नीयत  क्यूं  खराब जैसी है ?

प्यास है या बेजारी क्या है जो उन आँखों में
अब सवाल  जैसी है , अब  जवाब  जैसी  है .

फिर वह आग सी ख्वाहिश , फिर तड़प वह मीठी सी
वह    जो   रेग   लगती   है ,वह   जो   आब   जैसी  है .
    
सर्वक़द      इरादे    भी       इससे     हार     जाते    हैं
प्यास   मेरी    आँखों   की       शहरेख्वाब    जैसी   है
              ( हबाब = बुलबुला )    .
            
                ( रेग = गर्म   रेत)
                    ( आब = शीतल  पानी ) 
   (सर्व्काद = बहुत ऊंचे ; शःरेख्वाब =सपनों का नगर )

                  अखतर किदवई