Tuesday 20 December 2011

जश्ने बहार


फूलों से भर गयी है डालियाँ सारी
कोयलें  कुहुक   कुहुक   जाती  है 

भंवरों  ने  डेरे  डाले  कलियों पर
कोपलें  , देख  ये  जल  जाती  है

नदी में थिरकती है मछलियां खूब 
कौन   सा   नृत्य    ये   दिखाती है

घटाए बावरी हुई देखो ,बिन मौसम 
भी    उमड़ी      घुमड़ी     आती   है 


बजाके तालियाँ ,ये पत्तियाँ शरारती 
क्यूँ  दांतों  तले  उंगलियाँ   दबती  है 


पेड़ों    से   लिपटी   है    लताये   जो
पलक  क्यूँ   शर्म  से  वो झुकाती   है

तितलियाँ  पहन  के   लिबास   नए
आज कुछ    अलग   ही   इतराती है 

उन  के आने  से   जश्न   हुआ   है ये  
बहारें    ऐसी    कम    ही    आती   है






 


 

ग़ज़ल

कर    लो   अपने   दर्द   को  दूकान कर सको
तुम मीर कब हो जम्मा  जो दीवान कर सको


कद शहर तो क्या घर में भी ऊँचा ना हो सका
बस है जो सर के रहने का सामान कर सको

हर शौक  ही  जुनूँ   था ये    कैसी   बसर    हुई
अब दिल कहाँ जो दर्द को मेहमान   कर  सको


हम तो  हुसूल-ऐ-गम   में भी   सरशार   ही रहे
तुम ऐसी  जिंदगी   ना     मेरी   जान कर सको



ऐ दाई-ऐ-हयाते-ऐ-दवाम एक तुम ही  तो  हो
जो सारी मुश्किलें   मेरी   आसान   कर  सको

(अखतर किदवई )

deewan =collection of poems

husool-e-ghum= collecting sorrows;

sarshaar= Happy

daai -e-hayaat-e-dawaam= one who invites to eternal life (death)