Friday 8 March 2013

प्रकृति और नारी




मैं हवा सी हूँ 

मुझे बाँध सके कोई 

इतनी बिसात कहाँ है किसी में 

बाँधने वाले को भी उड़ा  कर ले जा सकती हूँ 

किन्तु बंधी रहती हूँ सदा ,स्नेह की कच्ची डोरी से ....


मैं दहकती ज्वाला सी हूँ 

मेरा सम्मान करने वाले मुझे से जीवन पाते है !

करें जो अपमान, वो भस्म हो जाते है 

मेरे क्रोध की धधकती लपटों से .....


कल कल करते ,बहते नीर सी हूँ मैं ...

चाहु तो प्यास बुझा दूँ जग की 

अपने स्नेह ,अपनी ममता से 

चाहूँ तो ध्वस्त कर दूँ ,घर ,बस्ती ,सब  

किसी क्रोधित,उफनती  नदी की तरह ....


मैं धेर्य से टिकी धरा सी  हूँ ...

तुम्हारे हर कर्म को व्यवहार को 

चुपचाप सहती हूँ शांत रह कर 

पर जब टूट जाये बाँध धेर्य का 

तो मेरी जरा सी कसमसाहट 

भूकंप ला  सकती है,उथल -पुथल 

कर सकती है तुम्हारे मन को  ,जीवन को .....


अपनी विशालता में सब को समेटे 

असीमित आकाश सी भी हूँ मैं 

अपने स्नेह-जल को बरसा कर 

सब का जीवन पोषित करूँ 

नव-जीवन का संचार् करूँ 

पर यदि बढ़े  तुम्हारे मन का प्रदुषण 

तो हो कुपित ,बिजलियाँ गिरा  कर 

दुष्टों का संघार करूँ ........


(अवन्ती सिंह आशा )