Monday 26 December 2011

नव गीत का निर्माण

तुम   यूँ     ही   मुस्कराते     रहो     मेरे     सामने    बैठ कर 
मैं   प्रीत    से   भरे     नव    गीत      का       निर्माण      करूँ  

तुम  अपने   मन   की    मधुरता    बिखरते   रहो       यूँ    ही
मैं   उस    मधुरता    से     अपने     गीतों    में      प्रेम     भरूं

अपनी आँखों  की  चमक   मुझ      तक    ऐसे   ही   पहुचने  दो
समेट कर उसे ,उस से मैं शब्दों   के  लिए    कुछ      गहने   गढ़ूं   


तुम्हारे  प्रेम   की   महक,  जो घेर रही  है  मुझे   चारों   और  से 
इस से   ही  तो   महकेगी   मेरी   ये बिना   सुगंध   की   कविता

अभी मत उठो यहाँ  से, रुको  क्या   तुम     अब   तक   नहीं समझे , 
तुम्हारे होने से ही तो बह रही है मुझ में से छन्द और बंधों की सरिता  


लो तुम हो जाने को  बेकरार  इतना ,तो   मैं   कविता   को   पूर्ण   करती   हूँ
तुम्हारे होने से इसे लिख पाई हूँ सो इस का पूरा श्रेय तुम्हे समर्पित करती हूँ 

ख़त एक तुम को लिखने का मन है

ख़त एक  तुम को लिखने का मन है  भगवन
क्या पता  है     तुम्हारा? किस   धाम   लिखूं ?
मन्दिर  में हो?गिरिजा  में हो? या मस्जिद में पैगाम लिखूं ?
तुम नाम भी अपना बतला दो ,राम लिखूं या रहमान लिखूं?

धरती, अम्बर सूरज लिख दूँ या सुबह लिखूं या शाम लिखूं ?
कह कर तुम को अल्लाह पुकारूँ या जगन्नाथ भगवान लिखूं 

तुम महावीर हो या नानक हो तुम? पर हम सब के पालक हो तुम 
निवास निर्धारित है क्या तुम्हारा? गीता में हो? या  कुरान  लिखूं? 
किस देश में हो?किस   वेश में हो?  किस   हाल     में?   परिवेश     में    हो ?
किसी पथ्थर की मूर्त में हो या काबे की सुरत में हो?या गुरुग्रंथ स्थान लिखूं?
तुम निराकार  हो या साकार हो तुम ? एक हो  या  अनेक  प्रकार  हो तुम ?  
रुक्मणी के   महल   में   रहते हो? या   मीरा   का   ग्राम     स्थान   लिखूं?
ख़त     एक    तुम      को     लिखने     का     मन     है     भगवन

क्या पता  है     तुम्हारा? किस   धाम   लिखूं ?..............