Thursday 5 January 2012

नौ महीने तक गर्भ में माँ बच्चे का बोझ उठती है 
अपनी छाती से चिपका कर अमृत पान कराती  है 


खुद   गीले    सोती   है ,   सूखे   में  उसे   सुलाती   है
उस की सुविधा की खातिर सब दुविधाएं सह जाती है


पर बेटे जब बूढी माँ  संग चल  ना  पायें  चार कदम
अक्षर के आदेशों को करती जब   अस्वीकार कलम 


तब खुलते है गाँव ,गली और नगर नगर में वृद्धाश्रम 
तब खुलते है गाँव ..........


बाप पकड  कर ऊँगली, बेटे को चलना सिखलाता है 
जब बेटा थक जाये तो  झट   काँधे  पर उसे उठता है 


भालू घोड़ा बंदर बन कर उस का  मन  बहलाता है
और बेटे का बाप कहा कर , मन ही मन इठलाता है 


वही बाप जब बुढ़ापे में लगता  है   नाकारा  बेदम 
आधुनिकता ढक देती है जब आँखों की लाज शर्म

तब खुलते है गाँव गली और नगर नगर में वृद्धाश्रम 
तब खुलते है......


बेटी पर दामाद का हक़ है ,और बेटों  पर   बहुओं  का 
अपनी पूंजी अपनी सम्पत्ति पर अधिकार है गैरों का 


पौधों को पानी देना   है,   क्या   अपराध   बुजुर्गों    का
आखिर क्या उपचार     ऐसे    माँ     बापों    के दर्दों का 


पथ्थर को पिघला ना पाए जब दो  जोड़ी   आँखें   नम
आशीर्वादों की धरती  पर   तब    लेते   है    श्राप जन्म 

तब खुलते है गाँव ,गली और नगर नगर में वृद्धाश्रम 
तब खुलते है गाँव गली और नगर नगर में........

जिन के खातिर माँ ने  मंदिर मंदिर मन्नत मांगी थी 
जिस को गोदी में लेकर वो रात रात   भर जागी थी 


पढ़ा लिख कर पिता ने जिससे कुछ आशाएं बाँधी थी 
जिस पर अंध भरोसा कर के हाथ की लकड़ी त्यागी थी 


जीवन संध्या में जब   वो   ही   दे   दें   तन्हाई का गम 
तानपुरे को बोझ लगे जब उखड़ी   साँसों   को   सरगम
तब खुलते है गाँव गली .........

यौवन के मद में जो भी माँ बाप के   मन  को  दुखायेगे
वो   खुद   भी    अपनी   संतानों    से  ठुकराए   जायेगे 

अलग पेड़  से   होकर,   दम्भी    फूल    सभी   मुर्झायेगे 
एक दिन आएगा वो   अपनी   करनी   पर    पछतायेगे


सूरज को पी जाने को   जब   आतुर   हो   जाता  है तम 
तिनके को जब हो जाता  है   ताकतवर   होने   का भ्रम

जब  फूलों   में   हो   जाता   है  डाली के  प्रति आदर कम
गुलशन की आँखों में खटके  जब जब पतझड़ के मौसम 
तब खुलते है गाँव ,गली और नगर नगर में वृद्धाश्रम ......
( Dr. कविता किरण )