Wednesday 30 November 2011

एक वोह ज़िन्दगी से प्यारा जो

एक वोह ज़िन्दगी से प्यारा जो
एक  मैं  ज़िन्दगी  से   हारा   जो.

तुम हो जो ख्वाब ख्वाब जीते हो
मैं तो वोह, सारे ख्वाब हारा जो.

ले   गया  लुट कर     मेरा   सूरज
नाकसो कस  का था सहारा जो.

वोह भी अब रौशनी से डरता है
था कभी सुब्ह का सितारा  जो.

आज भी उसके आसरे हैं आप
आज भी    बेकसों    बेचारा जो.

मैं न कहता था वोह किसी का नहीं
कभी    मेरा   कभी   तुम्हारा   जो.

(नाकसो  कस = each and every body)

   --------- akhtar किदवाई

Tuesday 29 November 2011

तुम को ढूंढा है

हर      सुबह     हर    शाम    तुम   को   ढूंढा है 
 हमने,  उम्र     तमाम      तुम   को     ढूंढा    है 



हर   शहर    की      ख़ाक      छान     मारी     है 
कभी छुप के ,कभी सरे आम   तुम   को  ढूंढा है 



हर फूल,हर कली ,को  बताया  है   हुलिया    तुम्हारा  
चेहरे का हर एक निशाँ ,करके ब्यान ,तुम को ढूंढा है

  

छुपे हो जरुर तुम  किसी  और लोक में, वरना   तो 
ज़मी सारी छानी ,फिर  आसमान पे, तुम को ढूंढा है 

Monday 28 November 2011

कविता


कविता, ये    कविता   आखिर  क्या  होती  है !

तेरे और मेरे जीवन की इसमें छुपी व्यथा होती है!!

कभी तो हंसती, मुस्काती, कभी ये बार बार रोती है!

पावँ में  इस के कभी है छाले,कभी रिसते घाव  धोती है!!

कविता, ये  कविता आखिर क्या होती है .............. 

मन की तड़प  छुपा लेती और बीज ख़ुशी के ये बोती है!

सपन सलोने हम को देती,पर क्या कभी खुद भी सोती है!!

कविता,  ये  कविता आखिर क्या  होती है............ 

उम्मीदे न टूटे हमारी, सदा ये यत्न प्रयत्न करती  है !

न उम्मीदी की कई गठरियाँ, ये चुपके चुपके  ढ़ोती है!! 

 कविता, ये  कविता आखिर  क्या होती है....



Saturday 26 November 2011

जिंदगी

आज फिर तेरे एक शुष्क पहलु  को देखा जिंदगी 
अश्रु-जल आँखों में   थे, बहने  से  रोका  जिंदगी  

हर इंसान की उम्मीद को, तू क्यूँ देती धोका जिंदगी?
क्यूँ  तुझे  हर कोई,  अच्छा   लगे   है रोता,  जिंदगी ?

क्यूँ तू  इतनी कठोर   है,पत्थर  सी  लगती जिंदगी ?
क्यूँ कोई   स्नेह -अंकुर  तुझ  में   ना  फुटा जिंदगी ?

हर  क्षण    ,हर   पल   तू   दर्द   सब     को   दे   रही
काश ,कभी   कोई तेरा   अपना    भी  रोता   जिंदगी 

सदा बन ,कराल-कालिका तू मृत्यु   का    नर्तन   करे
काश  कोई  शिव आ  के तुझ   को  रोक   लेता जिंदगी

 

 

Friday 25 November 2011

तैयार रहो




बहुत   कठिन    सफ़र   पे   जाना   है ,    तैयार    रहो  
कई पथ्थरों   ने   राह    में    आना   है    तैयार    रहो

 अभी    चाहो   तो   कदम   पीछे  हटा   भी सकते    हो 
चल      पड़ोगे तो    मंजिल  को  पाना   है    तैयार  रहो

रुके  तो   मन  पछतायेगा,  कोसोगे    सदा    खुद    को  
मंजिल   पर पहुचे  तो ठोकर में जमाना  है   तैयार  रहो 




              नव-जीवन 

इन    सूखे      पत्तों      की    हरियाली      अब     खो   चुकी    है 
अब     कुछ      दिन    और      बचे      है     इन       के         पास

कुछ      दिनों     में       ये     सुखेगे    ,   टूटेगे  ,   गिर      जायेगे 
क्या      फिर      ये    परम        शांति           को       पा       जायेगे?

या  जमीन के किसी   कोने   में    पड़े      चिखेगें  ,    चिल्लायेगे   के  
हमे   तो   अभी     भी   पेड    की   वो    कोमल      डाली      भाती   है

डाल   पर   वापस  जा  लगें  ,  ये   इच्छा    रोज   बढती   जाती   है\
अब कौन समझाये  इन   पत्तों को, के   सृष्टि के   नियम   से चलो

टूटने के बाद ,पहले धरती में मिलो,गलों और फिर किसी नव-अंकुर 
की नसों में  बनके  उर्जा बहों , उस   के प्राणों  का  एक  हिस्सा  बनो

तब कहीं  तुम   दोबारा  पत्ते    बनने     का  अवसर   पा    सकते    हो 
वरना तो यूँ ही इस  कोने  में पड़े पड़े बस  रो सकते हो चिल्ला सकते हो. 

Wednesday 23 November 2011

बादल

ये    बादल   क्यूँ   यूँ    आवारा    फिरते    है?  क्या   इनका   कभी,  कहीं 
 ठहरने का  मन नहीं  करता?  कोई   घर  नहीं  जंचता  इन्हें  अपने   लिए 


किसी   पहाड़    की  कन्दरा   में    कुछ   दिन    रुक   कर या  किसी आंचल 
की छाँव में ठहर ,अंतहीन सफर की थकान मिटाने की  इच्छा  नहीं   जगी ?


शायद ये   इच्छा   तो  जरुर  जागी   होगी   इन   के  मन   में , लेकिन
पता भी  है  अपनी  मज़बूरी  का , के  कहीं  पर   अधिक   ठहरने    की

इजाजत नहीं है ,मोह के बन्धन   बाँध  कर   अपने    कर्म  का  निर्वाह 
करना कितना मुश्किल होगा ,ये   समझ   आता   है   शायद   इन  को 


अपने   अरमानों   की   लाश   उठाये   ये  निरंतर   चलते  रहते  होगें
ताकि   किसी   के  सूखते   अरमानों   को   अपनी   नमी से सींच सके 

"आवारा बादल"  कह    कर  कोई   भी   ना   करे    अपमान    इनका 
ये तो कर्म योगी है जो खुद को तप की  अग्नि  में तपा कर,सब के जीवन 
 में प्राणों का   संचार करते   है ,खुद को मिटा,  हम सब का उद्धार करते है







Monday 21 November 2011

प्रकृति और नारी

मैं हवा हूँ ,मुझे बाँध सके कोई 
इतनी बिसात कहाँ है किसी में 
बाँधने वाले को भी साथ उड़ा कर ले
ले जा  सकती    हूँ  मैं  .......

दहकती  ज्वाला हूँ   मैं......
मेरा   सम्मान करने वाले
मुझ    से   जीवन  पाते  है
बाकि सब मेरी धधकती लपटों 
 में जल कर खो  जाते   है  ...

कल कल कर बहता नीर भी मैं  हूँ
चाहूँ तो प्यास बुझा  दूँ ,जग की
चाहूँ  तो सब को  बहा  ले  जाऊं  
जीवन और मृत्य ,मेरे ही पहलु है



धैर्य   से   टिकी    धरा   हूँ   मैं 
तुम्हारे हर   कर्म को,  व्यवहार को  
चुपचाप  सहती हूँ ,शांत     रह  कर
पर मेरी जरा सी कसमसाहट 
तुम्हारे  मन  और जीवन में 
भूचाल भी    ला  सकती   है  

अपनी   विशालता   में   सब    को 
समेटे ,आकाश हूँ, सब पर स्नेह -जल
बरसा कर नव-जीवन का संचार करूँ
अत्याचार  अधिक  बढ़े   तो  ,प्रकोपित
बिजलियाँ   गिरा, विनाश   भी  करूँ 

मेरा नाम प्रकृति है या नारी, ये आप ही
निर्णय कीजिये ,हम जुड़वाँ बहनों सी ही 
तो है ,बहुत अधिक अंतर नहीं होगा शायद 
हम दोनों में ,क्या  ख्याल  है इस बारे में ??








  

Sunday 20 November 2011

ये एक अच्छी बात हुई

सब कुछ खो कर खुद को पाया ये एक अच्छी बात हुई
गयी रात्री,प्रभात नव  छाया , ये एक अच्छी बात हुई

गिरे पुराने पात  वृक्ष   से, नव   पल्लव   अब    फुटेगे
फूल  खिलेगे  हर   डाली   पर   ,  पंछी   चहकेगे /कुकेंगें
हरीतिमा का अब राज्य है आया,ये एक अच्छी बात हुई

उर्जा मन में बढती   जाती  कुछ  करके  दिखलाने  की
पीकर दर्द जहां के सारे, खुशियों के   गीत     सुनाने की
आज फिर गीत ख़ुशी  का  गाया ये एक अच्छी बात हुई 


दीप जला कर  खुशियों  के, अब  हम  सब में  खुशियाँ  बाँट   रहें
क्यूंकि ,अन्धकार में जो पल काटे वो अब तक हम को  याद रहें
पर अन्धकार  हमे  छु  भी ना   पाया ये   एक    अच्छी बात हुई

( अवन्ती सिंह ) 

Saturday 19 November 2011

नारी

रामायण से महाभारत तक
हर युग में नारी की एक ही कहानी है, 
विचित्र उसकी व्यथा,
विचित्र उसकी जिंदगानी है |

कभी खेल में जीती जाती है.
कभी जुए में हारी जाती है |
निज स्वाभिमान को खोजती,
अनल सी जलती जाती है,
पृथा सी हर कष्ट झेले जाती है|

क्यूँ नारी को ही अग्नि-परीक्षा देनी है पड़ती,
क्यूँ नारी ही प्रश्न चिन्ह पर पाई जाती है |
दुर्गा सी पूजी जाने वाली, लक्ष्मी सी मर्यादित,
लहू ह्रदय का दे संतानों को पोषा नारी ने,
नर से बढ़ कर कार्य किये नारी ने
फिर भी क्यूँ हाशिये पे पाई जाती है |

नर जब होता हतास
स्त्री ही पूर्णता लाती जीवन में,
नर हो जब निराश
स्त्री ही आत्मीयता दर्शाती जीवन में,
फिर भी सामग्री यह विलाशिता की क्यूँ समझी जाती है |

जाग रहा अब समाज,
मानसिकता पुरुषों को भी बदलनी होगी,
सहचरी वो जीवन की,
सन्मान दे स्तिथियाँ भी बदलनी होंगी,
चरितार्थ करना होगा,
यामा की परिभाषा कैसे नयी बनाई जाती है |
( सुरेश चौधरी  )

Thursday 17 November 2011

मुद्दतों पहले जो  डूबी थी   वो  पूंजी   मिल गयी 
जो कभी दरिया में फेंकी थी वो  नेकी  मिल गयी

ख़ुदकुशी  करने  पे  आमादा  थी  नाकामी  मेरी 
फिर मुझे दिवार  पर  चढ़ती  ये चीटी मिल गयी 


मैं इसी मिटटी से  उठ्ठा  था  बबूले  की तरह,और 
 फिर एक दिन  इसी  मिट्टी में मिट्टी  मिल  गयी 


मैं इसे इनाम  समझूँ  या   सज़ा   का नाम दूँ 
उंगलियाँ कटते ही तोहफे में अंगूठी मिल गयी 

फिर किसी ने लक्ष्मी देवी को ठोकर मार दी
आज कूड़ेदान में फिर एक बच्ची मिल गयी  


(मुनव्वर राना)

 

Tuesday 15 November 2011

मध्य

 जीवन   रूपी  पुल  के  मध्य  में  खड़े   रहना  मुझे  बहुत    भाता   है
मध्य में खड़े  रहने  से   दोनों तरफ का दृश्य   साफ़  नज़र     आता   है

दुःख और सुख के बीच की हलकी सी लकीर जब हम  को नज़र आने लगती है
तो जिंदगी  एक   अनसुने   राग   में, निशब्द   गीत  गुनगुनाने   लगती  है

मंजिल किसी एक अंत पर   जाकर   ही  मिलेगी,  ये नियम    तो नहीं है
जहाँ पहुच कर पूर्णता और शांति उपलब्ध  हो जाये, मंजिल  तो   वही  है

सुख और दुःख के मध्य की अवस्था में मैं  खुद को  आनन्द से भरा  पा रही हूँ
इस    लिए ठहरी  हूँ   यहीं , ना  इधर  जा   रही  हूँ     ना   उधर   जा   रही   हूँ  






Friday 11 November 2011

सब कुछ खो कर खुद को पाया ये एक अच्छी बात हुई
गयी रात्री,प्रभात नव  छाया , ये एक अच्छी बात हुई

गिरे पुराने पात  वृक्ष   से, नव   पल्लव   अब    फुटेगे
फूल  खिलेगे  हर   डाली   पर   ,  पंछी   चहकेगे /कुकेंगें
हरीतिमा का अब राज्य है आया,ये एक अच्छी बात हुई

उर्जा मन में बढती जाती कुछ करके दिखलाने की
पीकर दर्द जहां के सारे, खुशियों के गीत सुनाने की
आज फिर गीत ख़ुशी  का  गाया ये एक अच्छी बात हुई 


दीप जला कर  खुशियों  के, अब  हम  सब में  खुशियाँ  बाँट   रहें
क्यूंकि ,अन्धकार में जो पल काटे वो अब तक हम को  याद रहें
पर अन्धकार  हमे  छु  भी ना   पाया ये   एक    अच्छी बात हुई







 








Wednesday 9 November 2011

शायद उस ने मुझ को तनहा देख लिया है!
दुःख ने मेरे घर का  रास्ता  देख  लिया  है!!

अपने आप से आँख चुराए फिरती हूँ मैं!
आईने में किस का चेहरा देख लिया है !!

उसने मुझे दरअसल कभी चाह ही नहीं था!
खुद  को  दे कर ये  भी धोका देख  लिया  है !!

रुखसत करने    के आदाब  निभाने  ही थे!
बंद आँखों से उस को जाता देख  लिया  है!!

शायद उस ने मुझ को तनहा देख लिया है!
दुःख ने मेरे घर का  रास्ता  देख  लिया  है! 
        


    WASEEM SHIGRI

Tuesday 8 November 2011

ये कविता आज कल के माहौल पर लिखने की कोशिश की है ,अजब तमाशा देखने को मिलता है ,जो भी आवाज़ उठता है ,उसे दबाने के लिए कुछ दिन बाद उस इंसान को ही गलत साबित करने की पुरजोर कोशिश की जाती है,कुछ पंक्तियाँ लिखी है उम्मीद है आप सब को पसंद आयेंगी ..... 

किस ओर से चले हम ,किस ओर जा रहे है?
हीरे को छोड़ कर  हम  पत्थर  उठा   रहे  है  

हद पागलपन की भी तो हम पार कर चुके है
हीरे  को   पत्थरों की   कीमत    बता  रहे  है

आदर्श , समझ, सोच , सब धुल में मिले है 
और धुल को उठा कर ,चेहरे  सजा    रहे   है 

दोष और को न देना हम खुद ही खुद के दुश्मन 
जिस ड़ाल  पर  है  बैठे  , उसे  खुद जला  रहे  है

किस ओर से चले हम ,किस ओर जा रहे है?
हीरे को छोड़ कर  हम  पत्थर  उठा   रहे  है

( अवन्ती सिंह )


 






Monday 7 November 2011

मेरी दास्ताँ ऐ हसरत  वो सुना सुना के रोये 
मुझे आजमाने वाले मुझे  आजमा  के  रोये

जो सुनाई अंजुमन ने शबे गम की आप बीती
कई रो के मुस्कराए ,कई  मुस्करा  के  रोये

कोई ऐसा अहले दिल हो जो, फसाना ऐ मोहोब्बत
मैं उसे सुना के रोऊँ  वो मुझे  सुना  के  रोये  

मैं हूँ बे वतन मुसाफिर, मेरा नाम बेबसी है 
मेरा कौन  है जहां में,जो गले लगा  के  रोये 

मेरी दास्ताँ ऐ हसरत  वो सुना सुना के रोये 
मुझे आजमाने वाले मुझे  आजमा  के  रोये

(अनजान शायर )
 

Sunday 6 November 2011

आज २ नवंबर २०११ दोपहर २.१९ मिनट पर. मेरे पुत्र चि: रितेश के घर लक्ष्मी रूपेण कन्या ने जन्म लिया है, मेरी एक भावना

 

 

मेरा जीवन दीप जलाने आयी,
मेरे उत्सुक मन की आशावरी,
प्रभा-मुख सजाये,
सुखद अनुभूति धारित,
हरित-मन-प्रसारित,
चन्दन-शीतल-आनन्दित,
तन हर्षित,
मन हर्षित,
मेरे जीवन की  विभावरी |

आयी तू लिए,
आकांक्षाएं,
हो रही,
ह्रदय-स्थल पर
अदभुत अनुभूतियाँ ,
जलने लगा अब,
आशाओं का नया दिया,
तू साक्षात् विष्णु-प्रिया,

अभिलाषाओं की संचित
जीवन-शृंगार प्रभावारी,
मानस-पटल पर शीतल-जल-बावरी,
मेरे जीवन की  विभावरी |
=====0====

सुरेश चौधरी
तुम जो कहना  चाहो वो मेरे    लब   पे   पहले आता है 
हमारे    विचारो    का    मेल   मुझे   बहुत    भाता   है  

कितने   लोगों   का   दिल   इस    तरह   मिल  पाता  है?
तुम   से  जुदाई     का  ख्याल    भी   मुझे   सताता   है 

तुम्हारी  आँखों   में , मेरे  लिए जब    प्यार   झिलमिलाता है  
लगे ऐसा के जैसे चाँद को देख कर ,चकोर कोई कसमसाता है 

कभी ,     कहीं   जब  कोई   प्रीत    के   गीत    गुनगुनाता     है
लगे के   हमारी   दास्ताँ     दुनिया   को     वो   सुनाता    है 


तुम जो   कहना  चाहो वो  मेरे    लब   पे   पहले  आता  है 
हमारे    विचारो    का    मेल   मुझे   बहुत    भाता     है











   







Saturday 5 November 2011

एक वृक्ष को माध्यम बना कर मैं उन लोगों का दर्द आप सब तक पहुचाना चाहती हूँ जिनकी उंगली पकड़ कर हम चलते है और जब उन्हें हमारे सहारे की जरूरत होती है तो हम अपनी अलग दुनिया बना उस में खो जाते है ,अपनी जड़ों को भूल जाते है हम........


 मैं एक सुखा वृक्ष  हूँ,कई जगह से टुटा वृक्ष  हूँ
लेकिन मेरी शाखाएं  इतनी विशाल है के अभी भी 
 कई राहगीरों को  धुप से बचाता हूँ , छुपाता  हूँ   

मैं तडपता हूँ, रोता हूँ खून के आंसू  लेकिन जला  कर खुद को 
दुनिया वालो को अभी भी  ठण्ड  से  बचाता  हूँ  ,हंसाता  हूँ 

मुझ में अब एक भी अंकुर न फूटेगा ये  तय  है  लेकिन
कई नए  पौधों  के  अभी   भी  मैं घर- बार   चलाता    हूँ 

हुजूम चारों  तरफ  है मेरे, घिरा   हूँ वृक्षों   से  लेकिन,  
अकेला हूँ अभी भी ,अकेलेपन से मैं आज भी घबराता हूँ 

Friday 4 November 2011

दिल के करीब

ये कविता मैं ने लगभग २ महीने पहले लिखी थी पर अभी तक मैं ने इसे किसी को सुनाया या लिखा  नहीं है,
ये कविता मेरे दिल के बहुत करीब है, अजीज है मुझे ,उम्मीद है  आप सब  को  भी पसंद आएगी..... 

अब मैं  कविताओ  के  प्रकार  बदलने   लगी  हूँ 
आकर  बदलने  लगी  हूँ,  व्यव्हार  बदले  लगी हूँ  

कब तक कवितायेँ सावन की   फुहारें  लाती जाएगी 
कब तक मेघा  बन  बरसेगी,मल्हार  गाती  जाएगी
इन भीगी कविताओ के वस्त्र ,इस बार बदलने लगी हूँ 
अब   मैं  कविताओं  के  प्रकार   बदलने    लगी   हूँ 

कब तक श्रृंगार -रस  में डूबी  रास रचाएगी   कवितायें  
कब तक नृत्य करेगीं  कब तक मन बहलाएगी कवितायेँ 
मैं  अब  इनके  सारे  हार   श्रृंगार  बदलने   लगी   हूँ 
अब  मैं  कविताओं   के   प्रकार   बदलने   लगी   हूँ   

कब तक वीर-रस के  ढोल  नगाड़े   पीटेगी कवितायेँ 
कब तक इन्कलाब के नारे ,चिल्लाएगी , चीखेगी कविताये
अब  इनके  हाथों  की  मैं,  तलवार    बदलने  लगी   हूँ   
अब  मैं   कविताओं  के   प्रकार  बदलने   लगी   हूँ 

कब तक सब की आँखों में अश्रु-जल छलकाएगी कविताये 
कब  तक  रोयेगीं,    तरसेगीं,    तड़पायेगी   कवितायेँ 
इन की  सृष्टी  और  इनका   संसार  बदलने  लगी   हूँ
अब   मैं   कविताओ   के  प्रकार   बदलने     लगी     हूँ 

Thursday 3 November 2011

सूरज ,सितारे,चाँद मेरे  साथ  में रहे !
जब तक तुमारे हाथ  मेरे हाथ  में रहे!!

शाखों से टूट जाये वो पत्ते नहीं है हम!
आंधी से कोई कह दे  के औकात  में रहे!!

कभी महक की तरह हम गुलो से उड़ते है!
कभी  धुएं  की तरह  पर्वतों से  उड़ते है!!

ये कैचियां हमे उड़ने से  खाक  रोकेगी !
हम परों  से नहीं,  हौसलों  से  उड़ते है !!

( राहत इन्दोरी )
 

Wednesday 2 November 2011

उंगलियाँ यूँ ना सब पर उठाया करो 
खर्च करने से पहले कमाया करो

जिंदगी क्या है खुद ही समझ जाओगे 
बारिशों  में  पतंगें   उड़ाया   करो 

शाम के बाद,   तुम जब सहर देखो 
कुछ फकीरों को खाना खिलाया करो

दोस्तों से  मुलाकात  के नाम पर 
नीम की पत्तियों को  चबाया करो 

घर उसी का सही तुम भी हक़ दार हो 
रोज आया करो ,रोज  जाया  करो
  ( राहत इन्दौरी  )
 
        ग़ज़ल 

जो मुश्किल में शरीके गम नहीं है !
मेरे  साथी  मेरे  हमदम  नहीं   है !!

ये  माना  एक  से  है  एक   बेहतर!
मगर हम भी किसी से कम नहीं है!! 

तेरे जलवो में जिस ने होश खोये
वो कोई  और  होगा  हम   नहीं  है

(अनजान शायर )







एक खुबसूरत गजल

कितनी पलकों की नमी मांग के लाई होगी 
प्यास तब फूल  की शबनम  ने बुझाई होगी 

एक  सितारा जो   गिरा टूट  के  ऊचाई    से 
किसी  जर्रे  की  हंसी  उसने   उड़ाई   होगी

आंधियां  है के मचलती  है चली  आती  है 
किसी मुफ्लिश ने कहीं शम्मा  जलाई होती

मैं ने कुछ तुम से कहा हो तो ज़बां जल जाए 
किसी दुश्मन  ने ये  अफवाह  उड़ाई  होगी 

हम को आहट  के भरोसे पे सहर तक पहुंचे 
रात भर आप  को  भी  नींद न  आई   होगी

( एक अनजान शायर )

Tuesday 1 November 2011

तुम

तुम  जीवन  उर्जा हो प्रियतम!
तुम  ही  तो  मेरे   प्राण     हो !!
तुम ही मेरी साँसों की डोरी !
तुम  ही  मेरी  पहचान   हो!!
तुम बिन जीवन कैसा जीवन!
तुम जीवन का संज्ञान हो  !!
तुम   ही    मेरी   प्यास    हो!
और तुम ही अमृत जाम हो!!
तुम बन कर ओस बरसते जब !
मैं जवा-कुसुम सी खिल जाती!!
तुम हास्य-परिहास्य मेरे जीवन का !
तुम  ही  मेरा  आत्म   सम्मान हो !!
तुम  जीवन  उर्जा हो प्रियतम!
तुम  ही  तो  मेरे   प्राण     हो !!
 
(अवन्ती सिंह )