Tuesday 7 February 2012


एक अंतराल के बाद देखा...
मांग के करीब सफेदी उभर आई है
आँखें गहरा गयी हैं,
दिखाई भी कम देने लगा है...
कल अचानक हाथ कापें ..
दाल का दोना बिखर गया-
थोड़ी दूर चली ,
और पैर थक गए .
अब तो तुम भी देर से आने लगे हो..
देहलीज़ से पुकारना ,अक्सर भूल जाते हो
याद है पहले हम हर  रात पान दबाये,
घंटों घूमते रहते...
..अब तुम यूहीं टाल जाते हो...
कुछ चटख उठता है-
आवाज़ नहीं होती ...
पर कुछ साबुत  नहीं रह जाता.....
और यह कमजोरी,
यह गड्ढे,
यह अवशेष
जब सतह पर उभरे ...
एक चटखन उस शीशे में बिंध गयी ..
..और तुम उस शीशे को...
.. फिर कभी न देख सके!




(Saras Darbari )

19 comments:

  1. सुन्दर एवं भावपूर्ण प्रस्तुति ।
    मेरी नई रचना देखें-
    मेरी कविता:आस

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  2. बहुत उम्दा लिखती है आप सरस जी,बधाई इतनी प्यारी रचना के लिए.......

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति !
    आभार !

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  4. संकेत कुछ कहते हैं, उन्हें गम्भीरता से लेना होता है..

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  5. budhaape kaa ahsaas bhar man ko todne lagtaa hai
    dikhtaa to nahee
    par andar hee andar insaan ghabraane lagtaa
    badhiya

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  6. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तु‍ति ।

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  7. बहुत अच्छी भावपूर्ण प्रस्तुति...

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  8. सुन्दर..
    kalamdaan.blogspot.in

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  9. चित्र और रचना दोनों अद्वितीय....बधाई...

    नीरज

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  10. बहुत ही खुबसूरत
    और कोमल भावो की अभिवयक्ति......

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  11. गहरे भाव लिए सुंदर रचना।

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  12. यह गड्ढे,
    यह अवशेष
    जब सतह पर उभरे ...
    एक चटखन उस शीशे में बिंध गयी ..
    और तुम उस शीशे को...
    .फिर कभी न देख सके!

    आपकी प्रस्तुति अच्छी लगी । मेरे नए पोस्ट पर आप आमंत्रित हैं । धन्यवाद ।

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  13. बदलाव...दोनों तरफ आ चुका ही!..बहुत सुन्दर रचना!

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  14. जिंदगी में बदलाव तो आने ही हैं ....भावपूर्ण रचना

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  15. मेरी रचना को आप सबने सराहा .....बहुत ख़ुशी हुई ....आप सबका बहुत बहुत आभार .....यही कुछ शब्द बहुत बड़ा संबल होते हैं ....एक बार फिर ....आप सबको बहुत बहुत धन्यवाद !!!!!

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