मिलते हुए प्रतीत होते है और कवि-मन तो उनके बीच के
वार्तालाप को सुन भी पाता है,........
रोज सुबह की तरह मैं आज भी उगते सुरज को निहार रही थी!
अचानक लगा ऐसे जैसे धरती आकाश को पुकार रही थी!!
हे! गगन हे! आकाश,फिर से अपनी बादल रुपी बाहें फैलाओ ना!
कई दिन से हो दूर दूर, आज फिर हृदय से लगाओ ना!!
जब तुम अपना स्नेह, जल के रूप मे बरसते हो!
तब तुम नव जीवन का मुझ मे संचार कर जाते हो!!
फिर मैं हरीतिमा की चुनर औड कर,करके फूलों से शृंगार!
अपने बालक रुपी जीवों मे बाँट देती हूँ, तुम्हारे सनेह से उपजे उपहार!!
हमारे इसी मिलन से तो निरंतर,चलता रहता है सृष्टि का कारोबार!!!
(पुरानी रचना )
सुन्दर!!!!!!!!!
ReplyDeleteअब तक ताज़ा है...
नित ही, बिन रुके, जीवन का क्रम।
ReplyDeleteप्रकृति और मानव को सुन्दर डोर से बांधती रचना,
ReplyDeleteसादर
prakarti hi jeevan ka aadhar hai ,bahut umda bhaav sundar abhivyakti.
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति!!
ReplyDeleteखुबसूरत अभिवयक्ति
ReplyDeleteSundar Kriti!
ReplyDeleteअनुपम कृति ...
ReplyDeleteprakrati ki nyari chhta ,anupam post .bdhai. mere blog par bhi aapka svagat hae.
ReplyDeleteसटीक शब्द सुन्दर पोस्ट।
ReplyDeleteroopak ka sundr nirvahn kiya hai aap ne
ReplyDeletekalidas kii prkriti sundri ki jhlk aa rhi hai
dr. ved vyathit
09868842688
बहुत सुंदर सटीक रचना,क्या बात है,
ReplyDeleteMY RESENT POST...काव्यान्जलि ...: तुम्हारा चेहरा,
नई सोच, सुंदर रचना...
ReplyDeleteहार्दिक बधाई।
अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteसुंदर सटीक रचना
Kuchh Alag si Soch liye rachna...... Behad Sunder
ReplyDeleteपिछले कुछ दिनों से अधिक व्यस्त रहा इसलिए आपके ब्लॉग पर आने में देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ...
ReplyDeleteसटीक शब्द रचना के लिए बधाई स्वीकारें.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
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