Saturday, 24 March 2012

सृष्टि का कारोबार





कभी हम ध्यान से क्षितिज  की तरफ देखे तो धरती आकाश
मिलते हुए प्रतीत होते है और कवि-मन तो उनके बीच के
वार्तालाप को सुन  भी पाता है,........



रोज सुबह की तरह मैं आज भी उगते सुरज को निहार रही थी!

अचानक लगा   ऐसे   जैसे   धरती आकाश को पुकार रही थी!!

हे! गगन हे! आकाश,फिर से अपनी बादल रुपी बाहें फैलाओ ना!

कई दिन से    हो   दूर   दूर,  आज   फिर   हृदय   से लगाओ ना!!

जब     तुम    अपना   स्नेह,   जल    के   रूप    मे    बरसते   हो!

तब   तुम   नव   जीवन    का    मुझ   मे    संचार   कर जाते हो!!

फिर   मैं   हरीतिमा   की   चुनर   औड   कर,करके फूलों से शृंगार!

अपने बालक रुपी जीवों मे बाँट देती हूँ, तुम्हारे सनेह से उपजे उपहार!!

हमारे इसी मिलन से तो  निरंतर,चलता  रहता   है   सृष्टि   का कारोबार!!!

(पुरानी रचना  )

17 comments:

  1. सुन्दर!!!!!!!!!

    अब तक ताज़ा है...

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  2. नित ही, बिन रुके, जीवन का क्रम।

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  3. प्रकृति और मानव को सुन्दर डोर से बांधती रचना,
    सादर

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  4. prakarti hi jeevan ka aadhar hai ,bahut umda bhaav sundar abhivyakti.

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  5. खुबसूरत अभिवयक्ति

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  6. prakrati ki nyari chhta ,anupam post .bdhai. mere blog par bhi aapka svagat hae.

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  7. सटीक शब्द सुन्दर पोस्ट।

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  8. roopak ka sundr nirvahn kiya hai aap ne
    kalidas kii prkriti sundri ki jhlk aa rhi hai
    dr. ved vyathit
    09868842688

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  9. नई सोच, सुंदर रचना...
    हार्दिक बधाई।

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  10. अच्छी प्रस्तुति
    सुंदर सटीक रचना

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  11. पिछले कुछ दिनों से अधिक व्यस्त रहा इसलिए आपके ब्लॉग पर आने में देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ...

    सटीक शब्द रचना के लिए बधाई स्वीकारें.

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  12. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...

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