भटकती हुई रूहें है यहाँ,
अपने जिस्म को छोड़ कर
भटक रही है दर -बदर
तलाश रही है किसी साथी को
किसी अपने को ,जो दूर कर दे
अकेलेपन के अहसास को ....
पर हर साथी के भीतर पल रहा है
अकेलेपन का खौफनाक अहसास
वो अहसास कभी खत्म नहीं होता
न भीड़ में न मेले में .....
क्या कोई राह नहीं जो खत्म कर सके
इस अकेलेपन के विषधर नाग को
है ,राह तो है पर उस पर हम चल ही नहीं पाते है
हम सदा अपने अकेलेपन को दूर करने की राह तलाशते है
पर हमे राह तलाशनी होगी औरों के एकाकीपन को दूर करने की
यदि हम कभी ऐसा कर पायें तो सच जानिए हमारा अकेलापन
स्वतः ही समाप्त हो जाएगा ,पर क्या हम कभी इस राह पर चल पायेगे ???
कभी खत्म कर पायेगे किसी के अकेलेपन को ?????
(अवन्ती सिंह )
अपने जिस्म को छोड़ कर
भटक रही है दर -बदर
तलाश रही है किसी साथी को
किसी अपने को ,जो दूर कर दे
अकेलेपन के अहसास को ....
पर हर साथी के भीतर पल रहा है
अकेलेपन का खौफनाक अहसास
वो अहसास कभी खत्म नहीं होता
न भीड़ में न मेले में .....
क्या कोई राह नहीं जो खत्म कर सके
इस अकेलेपन के विषधर नाग को
है ,राह तो है पर उस पर हम चल ही नहीं पाते है
हम सदा अपने अकेलेपन को दूर करने की राह तलाशते है
पर हमे राह तलाशनी होगी औरों के एकाकीपन को दूर करने की
यदि हम कभी ऐसा कर पायें तो सच जानिए हमारा अकेलापन
स्वतः ही समाप्त हो जाएगा ,पर क्या हम कभी इस राह पर चल पायेगे ???
कभी खत्म कर पायेगे किसी के अकेलेपन को ?????
(अवन्ती सिंह )
बहुत सुन्दर...
ReplyDeleteगहन अर्थ लिए रचना...
अनु
" राह तो है पर उस पर हम चल ही नहीं पाते है
ReplyDeleteसदा अपने अकेलेपन को दूर करने की राह तलाशते है..."
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
सादर
मधुरेश
बस यह समझना होगा कि साथ कोई चल रहा है।
ReplyDeleteअकेलापन न भीड़ से दूर होता है , न भौतिकता से .... उसे समझना , समझाना तो स्वतः होता है
ReplyDeleteAkelepan har kahin vyapt hai....
ReplyDeleteSundar abhivyakti:-)
गहन भाव लिये उत्कृष्ट प्रस्तुति ...आभार
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