के कलम आतुर हो उठेगी शब्दों की बरसात करने को
जाने कब मन की वेदनाएँ होगी इतनी असहनीय ,के
मन ,मना कर पायेगा समाज के उलझे-2 नियमों को मानने से
जाने कब करुणा का सागर ,सब तटबंधों को तोड़ कर खुद में समाहित कर पायेगा
हर दुखी , लाचार को, अपने पराये का विचार किये बिना
जाने कब ,प्रेम इतना उदार बन पायेगा ,के हर कमी हर गलती को
कर पायेगा नज़र अंदाज़ और खुद के अस्तित्व को रख पायेगा हर परिस्तिथि में बरकरार
ये सब सीमायें पानी हैं,
ReplyDeleteहम सबको प्रीति निभानी है
बहुत बढि़या।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर..
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी प्रस्तुति । धन्यवाद ।
ReplyDeletevery nice....gagar men sagar....
ReplyDeleteजाने कब ,प्रेम इतना उदार बन पायेगा ,के हर कमी हर गलती को
ReplyDeleteकर पायेगा नज़र अंदाज़ और खुद के अस्तित्व को रख पायेगा हर परिस्तिथि में बरकरार
एक सुलझे रिश्ते की सबसे बड़ी कुंजी
बहुत अच्छी रचना
ReplyDelete