ये कविता आज कल के माहौल पर लिखने की कोशिश की है ,अजब तमाशा देखने को मिलता है ,जो भी आवाज़ उठता है ,उसे दबाने के लिए कुछ दिन बाद उस इंसान को ही गलत साबित करने की पुरजोर कोशिश की जाती है,कुछ पंक्तियाँ लिखी है उम्मीद है आप सब को पसंद आयेंगी .....
किस ओर से चले हम ,किस ओर जा रहे है?
हीरे को छोड़ कर हम पत्थर उठा रहे है
हीरे को पत्थरों की कीमत बता रहे है
आदर्श , समझ, सोच , सब धुल में मिले है
और धुल को उठा कर ,चेहरे सजा रहे है
दोष और को न देना हम खुद ही खुद के दुश्मन
जिस ड़ाल पर है बैठे , उसे खुद जला रहे है
किस ओर से चले हम ,किस ओर जा रहे है?
हीरे को छोड़ कर हम पत्थर उठा रहे है( अवन्ती सिंह )