ज़िन्दगी तेरी तल्खी गर शराब जैसी है ,
प्यास मेरी कब कम है, बेहिसाब जैसी है .
सच तो ये है जानेमन हम भी एक हस्ती हैं ,
हाँ मगर यह हस्ती भी बस हबाब जैसी है .
होश में या नश्शे में कर तो ली थी कल तौबा,
आज फिर मेरी नीयत क्यूं खराब जैसी है ?
प्यास है या बेजारी क्या है जो उन आँखों में
अब सवाल जैसी है , अब जवाब जैसी है .
फिर वह आग सी ख्वाहिश , फिर तड़प वह मीठी सी
वह जो रेग लगती है ,वह जो आब जैसी है .
सर्वक़द इरादे भी इससे हार जाते हैं
प्यास मेरी आँखों की शहरेख्वाब जैसी है
( हबाब = बुलबुला ) .
( रेग = गर्म रेत)
( आब = शीतल पानी )
(सर्व्काद = बहुत ऊंचे ; शःरेख्वाब =सपनों का नगर )
अखतर किदवई