मन चंचल है , चपल है, चलायमान है, अधीर है
जीत जाता अधिकाँश युद्ध , ये ऐसा रणवीर है
रोज नया कुछ पाने की इच्छाए इसकी बढती जाती है
बुद्धि, इसकी देख हरकतें ,कसमसाती है चिल्लाती है
पर ये है स्वार्थ का पुतला,इस को किसी की पीर नहीं है
जीत इसे काबू में कर ले , कोई भी ऐसा वीर नहीं है
बड़े बड़े योगी जनों को ये ऊँगली पर नाच नचाता है
तोड़ के लोगों के व्रत -संकल्प ये अट्टहास लगता है
जो कहे के मन को जीत लिया, ये उसी को मुंह की खिलाता है
महाविजय्यी ,महा योद्धाओं को ये चारों खाने चित कर जाता है
इसे पराजित कर लेने का कभी भी करो गुमान नहीं
ये काम असम्भव है बिलकुल , हम इन्सां है, भगवान नहीं
जीत नहीं सकते गर इस को, तो परिवर्तित कर दें इसकी राहें
इच्छाएं मारे से मरे ना तो आओ बदल दें हम मन की चाहें
हे मन तू ईश्वर में खो जा, तू उस का रूप निहारा कर
तू उस के आगे नाचा कर, और हर दम उसे पुकारा कर
कर के पुण्य कार्य,सद्कार्य तू , दुखियों के दुःख निवारा कर
सब व्यसन त्याग दे,आज अभी ,बस प्रभु प्रेम का नशा गवांरा कर.
पुरानी कविता
=========
(अवन्ती सिंह)