Friday 30 December 2011

आप को मुझ से बहुत प्यार है .....

आप ने मुझे बनाया है ,आप को तो पता है मेरी पसंद और नापसंद के बारे में 
पर ऐसा क्यूँ है के कुछ चीजे ऐसी बनाई आप ने जो मुझे पसंद नहीं ?
आप ने खुशियाँ बनाई मेरे लिए ,पर दुःख किस के लिए बनाये थे ?
आप ने हंसी तो बनाई मेरे लिए ,पर आंसू किस लिए बनाये थे 
आप ने प्यार बनाया मेरे लिए ,पर नफरत किस लिए बनाई?
आप ने फूल बनाते हुए मेरे ही बारे में सोचा होगा,पर कांटे तो नहीं चाहिए मुझे 
आप ने मिलन बनाया वो सुखद लगता है,पर जुदाई के पल नहीं सहने है मुझे 
आप ने जीवन बनाया उस से मुझे बेहद प्यार है,पर डर लगता है मरने के ख्याल से
किस लिए ,किस लिए बनाईआप ने वो चीजे जो मुझे   पसंद ही  नहीं  है ?
सोचती रही ,हर दिन हर पल ,सताता   रहा   ये  सवाल  मुझे  हमेशा  ही 
जीवन के दिन, महीने, साल बीतते ही रहे इस सवाल के बोझ को ढ़ोते हुए 
फिर जीवन के अनुभव इन सवालों के जवाब चुपके से में कान में बता गए 
खुशियों की कीमत दुःख के बाद ही समझ आती है 
जुदाई ही मिलन का महत्व समझाती है 
फूलों को   कांटे  ही   सम्भाले   रखते  है 
जीवन की थकन को  मृत्यु ही उतार पाती है
समझ गयी हूँ भगवन अब मैं समझ गयी हूँ 
आप ने सब कुछ मेरे ही लिए बनाया ,मुझे  हर   चीज  की  जरूरत  है 
पर मैं से सब अपनी नजर से देखा ,काश आप  की  नजर से देख पाती 
तो ये पंक्ति मैं पहले ही दोहराती ,आप कभी कुछ गलत नहीं कर सकते 
आप को मुझ से  बहुत प्यार है ,आप  को मुझ से   बहुत  प्यार है .....

Wednesday 28 December 2011

घुमती है जिंदगी

मुस्कराहट उधार की, ओढ़े  घुमती  है जिंदगी 
झूठ के आईने में सच   को  ढूँढती है   जिंदगी 

पाँव में छाले हजारों, दर्द से कराहती  है,और 
 रोजाना  ही  नए नृत्य में झूमती है   जिंदगी 

दिल की गहराई में सन्नाटा है और  तन्हाई  है 
और बन कर महफिले बहार घुमती है जिंदगी 

सांस थम जाये तो आ जाये  इस   को  भी करार 
पूरी उम्र से यूँ ही बेचैन ,बेकरार घुमती है जिंदगी  

Tuesday 27 December 2011

ख़त एक तुम को लिखने का मन है

ख़त एक  तुम को लिखने का मन है  भगवन
क्या पता  है     तुम्हारा? किस   धाम   लिखूं ?
मन्दिर  में हो?गिरिजा  में हो? या मस्जिद में पैगाम लिखूं ?
तुम नाम भी अपना बतला दो ,राम लिखूं या रहमान लिखूं?

धरती, अम्बर सूरज लिख दूँ या सुबह लिखूं या शाम लिखूं ?
कह कर तुम को अल्लाह पुकारूँ या जगन्नाथ भगवान लिखूं 

तुम महावीर हो या नानक हो तुम? पर हम सब के पालक हो तुम 
निवास निर्धारित है क्या तुम्हारा? गीता में हो? या  कुरान  लिखूं? 
किस देश में हो?किस   वेश में हो?  किस   हाल     में?   परिवेश     में    हो ?
किसी पथ्थर की मूर्त में हो या काबे की सुरत में हो?या गुरुग्रंथ स्थान लिखूं?
तुम निराकार  हो या साकार हो तुम ? एक हो  या  अनेक  प्रकार  हो तुम ?  
रुक्मणी के   महल   में   रहते हो? या   मीरा   का   ग्राम     स्थान   लिखूं?
ख़त     एक    तुम      को     लिखने     का     मन     है     भगवन

क्या पता  है     तुम्हारा? किस   धाम   लिखूं ?..............

Monday 26 December 2011

नव गीत का निर्माण

तुम   यूँ     ही   मुस्कराते     रहो     मेरे     सामने    बैठ कर 
मैं   प्रीत    से   भरे     नव    गीत      का       निर्माण      करूँ  

तुम  अपने   मन   की    मधुरता    बिखरते   रहो       यूँ    ही
मैं   उस    मधुरता    से     अपने     गीतों    में      प्रेम     भरूं

अपनी आँखों  की  चमक   मुझ      तक    ऐसे   ही   पहुचने  दो
समेट कर उसे ,उस से मैं शब्दों   के  लिए    कुछ      गहने   गढ़ूं   


तुम्हारे  प्रेम   की   महक,  जो घेर रही  है  मुझे   चारों   और  से 
इस से   ही  तो   महकेगी   मेरी   ये बिना   सुगंध   की   कविता

अभी मत उठो यहाँ  से, रुको  क्या   तुम     अब   तक   नहीं समझे , 
तुम्हारे होने से ही तो बह रही है मुझ में से छन्द और बंधों की सरिता  


लो तुम हो जाने को  बेकरार  इतना ,तो   मैं   कविता   को   पूर्ण   करती   हूँ
तुम्हारे होने से इसे लिख पाई हूँ सो इस का पूरा श्रेय तुम्हे समर्पित करती हूँ 

ख़त एक तुम को लिखने का मन है

ख़त एक  तुम को लिखने का मन है  भगवन
क्या पता  है     तुम्हारा? किस   धाम   लिखूं ?
मन्दिर  में हो?गिरिजा  में हो? या मस्जिद में पैगाम लिखूं ?
तुम नाम भी अपना बतला दो ,राम लिखूं या रहमान लिखूं?

धरती, अम्बर सूरज लिख दूँ या सुबह लिखूं या शाम लिखूं ?
कह कर तुम को अल्लाह पुकारूँ या जगन्नाथ भगवान लिखूं 

तुम महावीर हो या नानक हो तुम? पर हम सब के पालक हो तुम 
निवास निर्धारित है क्या तुम्हारा? गीता में हो? या  कुरान  लिखूं? 
किस देश में हो?किस   वेश में हो?  किस   हाल     में?   परिवेश     में    हो ?
किसी पथ्थर की मूर्त में हो या काबे की सुरत में हो?या गुरुग्रंथ स्थान लिखूं?
तुम निराकार  हो या साकार हो तुम ? एक हो  या  अनेक  प्रकार  हो तुम ?  
रुक्मणी के   महल   में   रहते हो? या   मीरा   का   ग्राम     स्थान   लिखूं?
ख़त     एक    तुम      को     लिखने     का     मन     है     भगवन

क्या पता  है     तुम्हारा? किस   धाम   लिखूं ?..............







Friday 23 December 2011

कल आधी रात के बाद

कल आधी रात के बाद एक कविता ने मुझे झन्झोर कर जगा दिया
पहले     तुम     मुझे     लिख     तो    तब    ही    तुम्हे   सोने   दूँगी
ये कह कर मुझे डरा दिया ...................
समझाया मैं ने उसे ,तुम क्यूँ हो रही  हो बेकरार
ज़रा    तो    करो    सुबह    होने    का    इंतजार
उठते ही सबसे पहले   मैं करूँगी  तुम्हारा शृंगार
सज़ा-धजा,नव वस्त्र पहनाकर, दूँगी  तुम्हे  काग़ज़  पे   उतार
हंस कर बोली कविता,   पागल   नहीं    हूँ,  मुझे   है  सब  पता
२  गीत  और १  ग़ज़ल  मुझ  से आगे   वाली    पंक्ति मे खड़े है
उतरेगे काग़ज़   पर   मुझ   से  पहले,इस   ज़िद्द   पर    अड़े   है
अगर   मैं   सो   गई,  या मष्तिश्क  की गलियों मे कहीं खो गई
मुझे आने मे देर हुई ज़रा भी तो   बाज़ी मार ले जाएगे वो ज़िद्दी
नहीं पता मुझे कुछ भी,अभी करो मेरा शृंगार ...............
पहनाओ मोतियन के हार,सज़ा-धज़ा कर,दो मुझे काग़ज़ पे उतार
फिर तुम भी  सो जाना  पल दो चार....................
आख़िर मैं गई कविता से हार,शीघ्र किया उसका शृंगार
किया नया  कलेवर तैयार,दिया   उसे   काग़ज़ पे उतार
काश! मेरी नींद ना   करने लगे अब   कोई   ज़िद्द बेकार
वो आ ही जाए पल दो चार.....

जीवन चक्र

बहारों के आने  मे   वक़्त  तो लगता है
खिज़ाओं के जाने मे वक़्त तो लगता है
मगर अब   तो ज़िंदगी गुलज़ार है  मेरी
सारे जहाँ   की  खुशियाँ ताबेदार है मेरी
ना जाए यह  खुशिया ,यहीं थम सी जाए
अब तो यही  चाहत,लगातार   है     मेरी
मगर यह है चाहत ,नियम तो  नही यह
बहारों को एक दिन तो जाना    ही  होगा
खिज़ाओं को वापस तो आना ही    होगा
यह चक्र तो    यूँ    ही    चलता   है सदा
एक    आता    है    तो एक लेता है विदा
तो फिर क्यू ना खुद को नियती चक्र के लायक बना लूँ मैं
दुख और    सुख    के   मध्य    की   अवस्था  को पा लूँ मैं 



(एक पुरानी रचना)
          

Thursday 22 December 2011

खुदा ने जब तुम्हे बनाया होगा ...

चाँद   से  नूर    थोडा,  खुदा   ने     उठाया   होगा 
जब तुम्हारे जिस्म की   रंगत  को  बनाया होगा  

टिमटिमाते दो तारे  रख दिए  आँखों में तुम्हारी 
और काली घटाओं से, बालों को   बनाया   होगा 


होठ  ऐसे  के,  लगे   नाजुक  पंखुड़ी कमल  की हो 
कमल की पखुडिया वो    कैसे   तराश  पाया होगा 


इतने  तीखे  नयन -नक्श  बनाये   होगे   जिससे 
उस  औजार को वो जाने  कहाँ    से    लाया   होगा 


जिस्म   ऐसा,  जैसे   नदी  गिरती हो उठ जाती हो 
नदी   को   सांचे   में,  वो   कैसे ढाल   पाया   होगा


चाँद   से     नूर    थोडा,    खुदा   ने   उठाया   होगा 

जब तुम्हारे जिस्म की रंगत   को   बनाया   होगा 


( चित्र साभार -गूगल इमैज )

Tuesday 20 December 2011

जश्ने बहार


फूलों से भर गयी है डालियाँ सारी
कोयलें  कुहुक   कुहुक   जाती  है 

भंवरों  ने  डेरे  डाले  कलियों पर
कोपलें  , देख  ये  जल  जाती  है

नदी में थिरकती है मछलियां खूब 
कौन   सा   नृत्य    ये   दिखाती है

घटाए बावरी हुई देखो ,बिन मौसम 
भी    उमड़ी      घुमड़ी     आती   है 


बजाके तालियाँ ,ये पत्तियाँ शरारती 
क्यूँ  दांतों  तले  उंगलियाँ   दबती  है 


पेड़ों    से   लिपटी   है    लताये   जो
पलक  क्यूँ   शर्म  से  वो झुकाती   है

तितलियाँ  पहन  के   लिबास   नए
आज कुछ    अलग   ही   इतराती है 

उन  के आने  से   जश्न   हुआ   है ये  
बहारें    ऐसी    कम    ही    आती   है






 


 

ग़ज़ल

कर    लो   अपने   दर्द   को  दूकान कर सको
तुम मीर कब हो जम्मा  जो दीवान कर सको


कद शहर तो क्या घर में भी ऊँचा ना हो सका
बस है जो सर के रहने का सामान कर सको

हर शौक  ही  जुनूँ   था ये    कैसी   बसर    हुई
अब दिल कहाँ जो दर्द को मेहमान   कर  सको


हम तो  हुसूल-ऐ-गम   में भी   सरशार   ही रहे
तुम ऐसी  जिंदगी   ना     मेरी   जान कर सको



ऐ दाई-ऐ-हयाते-ऐ-दवाम एक तुम ही  तो  हो
जो सारी मुश्किलें   मेरी   आसान   कर  सको

(अखतर किदवई )

deewan =collection of poems

husool-e-ghum= collecting sorrows;

sarshaar= Happy

daai -e-hayaat-e-dawaam= one who invites to eternal life (death)


Monday 19 December 2011

अभिलाषा

गर      प्राण ,देह    को    असमय    त्याग   दें 
तो हे भगवन,  करना   मुझ पे   इतनी    कृपा  

एक नव देह देना मुझ  को ,कुछ दिन  को सही ,
सभी अधूरे कार्य कर सकूँ ,कुछ    अभिलाषाए 
पूर्ण कर सकूँ ......

कुछ  और    देर   मुंडेर    पर   बैठी  चिड़ियों  के 
कलरव     गीत        का   रस   पान   कर   सकूँ 



एक और    बार    सींच   सकूँ   उन    पौधों    को 
जो मेरे   अकस्मात   जाने  के  बाद  सूख चले है

कुछ और देर बच्चों  की   निर्दोष   हँसीं   सुन  लूँ 
समेट लूँ ,अपने अंतर में ,उन की सुन्दर छवियाँ  



कुछ    और    देर    आत्मीय       जनों    को   अपनी
 मुस्कान    से    सुख     शांति     प्रदान    कर    सकूँ  

कुछ  और  देर   बैठ   सकूँ  प्रीतम के   पास, कह   दूँ वो 
सब जो कभी  कहा ही नहीं,   प्रकट  कर दूँ  विशुद्ध   प्रेम

जिसके  सहारे  वो    अपने      अकेलेपन   से  जूझ  पाए 
कर पाए जीवन की हर  कठिनाई का  सामना ,बिना  थके . 


बूढी माँ को कह  तो सकूँ के, दवा    टाइम    से खाना ,अब 
मेरी तरह रोज दवा टाइम से   देने शायद कोई न भी आ पाए 

प्राणों ने देह ही तो   छोड़ी    है ,पर   उन    अभिलाषाओं को 
कहाँ    छोड़    पाए   है   जो ,   अभी    तक    पल    रही   है
इस अमर मन में.... 
(स्व. संध्या गुप्ता को विनम्र श्रद्धांजलि..  )

  

Sunday 18 December 2011

बताये कोई तो

 बताये कोई तो ये क्यूँ  इन्सां   का  दिल,    दिन     बदिन      छोटा       हुआ      जाता     है
खुदा ने  बनाया तो  खरे  सोने  का था,मिलावट  तुम ने की है, जो   ये खोटा  हुआ    जाता है 

ये तेरा   ये  मेरा ,  ये   अपना     पराया,   बच्चों    को    हम     ने    बस     ये    ही  सिखाया
बचपन में फ़रिश्ते सा था,   उम्र   बढ़ते-2 , वो  वहशी   हुआ  जाता है ,दरिंदा   हुआ   जाता  है 


अब मेरे    शहर की   गलियाँ  सूनी  हो  जाती    है शाम ढलती  ही,खामोशी सी   छा जाती है
कभी अंगीठियाँ जला के तापते थे देर रात तक गलियों में,वो सब,अब    सपना हुआ जाता है  

सांझे चूल्हे  ,  कुवे,  तालाब,आम के बाग़,  हम ने देखे है, उन्हें रूह से   महसूस   भी   किया  है
बच्चों को किस्से भी सुनाये तो, ये सब क्या चीजे होती है ये समझाना , मुश्किल हुआ  जाता है  



ठहर जा  ऐ  इन्सां  रुक जा ,   बस कर ,   इतनी    तरक्की   तो   काफी  है   ना    जीने    के लिए 
ऐसा ना हो तू इतना पा जाये के घुटे दम,कहे इन सब के बीच सांस ले पाना मुश्किल हुआ  जाता है 

(अवन्ती सिंह )
 

Friday 16 December 2011

अत्याचार

जब मैं ने रचनाये लिखना शुरू नहीं किया था ,उससे पहले भी मन में कविताये नृत्य किया करती थी पर काम में इतना व्यस्त रहती थी के खुद के लिए भी वक्त नहीं निकाल पाती थी ,फिर कविताये लिखना तो बड़ी दूर की कोडी थी,पर जब ये अहसास हुआ के इन्हें यूँ ही बेकार नहीं जाने देना चाहिए लिखना शुरू करना चाहिए तो उस वक्त की अपनी भावनाओ को आप सब के साथ एक कविता के माध्यम से बाँट रही हूँ ......

                      
अब मैं इन कविताओ पर अत्याचार नहीं कर सकती हूँ 
इन को ऐसे व्यर्थ  और  बेकार नहीं  कर  सकती  हूँ
कई वर्षो तक मैं ने इन्हें कागज़ नसीब होने न दिया
क्रमबद्ध इन्हें किया नहीं,सपना कोई संजोने न दिया 
लेकिन अब मैं ये सौतेला व्यवहार नहीं कर सकती हूँ 
अब मैं इन  कविताओ पर.................
नव जीवन के अंकुर अब इन कविताओ से फुटेगे
छंद -बंध की परिधि में,शब्दों का नृत्य चलेगा अब 
भावनाओ के रंगों  से  हर पन्ना   खूब   सजेगा     अब 
इन्तजार कुछ दिन तो क्या,पल दो चार नहीं कर सकती हूँ  
अब मैं इन  कविताओ पर................
हृदय -वीणा की  धुन  पर अब   कविता  मल्हार    सुनायेंगी
गीत  ख़ुशी  से  नाचेगे, गजले  थम    थम    मुस्कायेगीं 
अब अपने मन  से,  मैं  अधिक तकरार नहीं कर सकती हूँ 
अब मैं इन कविताओ पर ...............

Thursday 15 December 2011

इन गीली गीली राहों पर, मैं कभी-2 यूँ ही दूर तलक चला जाता हूँ

बीते वक्त के पन्नों  को,   खोलता हूँ,   पढ़ता   हूँ,   मुस्कराता   हूँ


जब तुम मेरे साथ इन राहों पर चली थी, तो हवाएँ, फिजायँ अलग
थी, भली थी.............


वो मेरे  साथ   तुम्हारा   यूँ   ही चलते जाना, हँसना  ,खिलखिलाना
रूठ जाना और फिर से मुस्कराना....


वो पेड़ों की डाली  से   अठखेलियाँ    करना, कुछ   कलियाँ   चुनना
बालों में सजाना....


लगती हो सुंदर   अगर   मैं   ये   कह   दूं     तो   हया   की लाली का
गालों पर आना.....


वो सारे    पल,     इन    राहों   ने   अपने   दिल  मे   छुपा कर रखे हैं


सुकून     और    शांति के वो   पल,  कुछ और   नहीं,  आलेख रखे हैं


मैं दूर    तक    जाकर      उन   पन्नों    को    पढ़    कर     आता   हूँ


आश्चर्य     है!   उन   पन्नों   की   स्याही      को        मैं   आज    भी
गीली और ताज़ा पाता हूँ.......


(avanti singh )

Sunday 11 December 2011

मिल कर ढूंढे

मिल कर ढूंढे  वो   सूरज   जो,   अंतस     में     उजियारा     भर   दे 
अँधियारा  मन का  हर ले  जो,   आत्मा  को  पूर्ण   प्रकाशित  कर दे 


लायें   ढूंढ़  कर   वो   बहारें   जो ,हर  एक   डाली    को      हरित  करें
हर डाली पर सुख  की कलियाँ  हो,   हर   पेड़    संतोष    के    फल  दे 


सागर से कहें ,वो बादल गढ़,  जो   स्नेह    का   जल    बरसा     जाये 
वो स्नेह  बहें   हर  एक  मन में  और   कटुता    को    पिघला    जाये


एक नया चाँद   भी    लाना   है   जो, नव-रश्मियाँ   हम  तक  पहुचाये 
हर मन   में   प्रीत   का   ज्वार   उठे , जग   प्रीत   भवर   में  खो  जाये 













Friday 9 December 2011

ग़ज़ल



ज़िन्दगी तेरी तल्खी गर शराब जैसी है ,
प्यास मेरी कब कम है, बेहिसाब जैसी है .

सच तो ये है जानेमन हम भी एक हस्ती हैं ,
हाँ मगर यह हस्ती भी बस हबाब  जैसी  है .

होश में या नश्शे में कर तो ली थी कल तौबा,
आज फिर मेरी नीयत  क्यूं  खराब जैसी है ?

प्यास है या बेजारी क्या है जो उन आँखों में
अब सवाल  जैसी है , अब  जवाब  जैसी  है .

फिर वह आग सी ख्वाहिश , फिर तड़प वह मीठी सी
वह    जो   रेग   लगती   है ,वह   जो   आब   जैसी  है .
    
सर्वक़द      इरादे    भी       इससे     हार     जाते    हैं
प्यास   मेरी    आँखों   की       शहरेख्वाब    जैसी   है
              ( हबाब = बुलबुला )    .
            
                ( रेग = गर्म   रेत)
                    ( आब = शीतल  पानी ) 
   (सर्व्काद = बहुत ऊंचे ; शःरेख्वाब =सपनों का नगर )

                  अखतर किदवई

Wednesday 7 December 2011

नव गीत का निर्माण

तुम   यूँ     ही   मुस्कराते     रहो     मेरे     सामने    बैठ कर 
मैं   प्रीत    से   भरे     नव    गीत      का       निर्माण      करूँ  

तुम  अपने   मन   की    मधुरता    बिखरते   रहो       यूँ    ही
मैं   उस    मधुरता    से     अपने     गीतों    में      प्रेम     भरूं

अपनी आँखों  की  चमक   मुझ      तक    ऐसे   ही   पहुचने  दो
समेट कर उसे ,उस से मैं शब्दों   के  लिए    कुछ      गहने   गढ़ूं   


तुम्हारे  प्रेम   की   महक,  जो घेर रही  है  मुझे   चारों   और  से 
इस से   ही  तो   महकेगी   मेरी   ये बिना   सुगंध   की   कविता

अभी मत उठो यहाँ  से, रुको  क्या   तुम     अब   तक   नहीं समझे , 
तुम्हारे होने से ही तो बह रही है मुझ में से छन्द और बंधों की सरिता  


लो तुम हो जाने को  बेकरार  इतना ,तो   मैं   कविता   को   पूर्ण   करती   हूँ
तुम्हारे होने से इसे लिख पाई हूँ सो इस का पूरा श्रेय तुम्हे समर्पित करती हूँ 










खुदा ने जब तुम्हे बनाया होगा ...

चाँद   से  नूर    थोडा,  खुदा   ने     उठाया   होगा 
जब तुम्हारे जिस्म की   रंगत  को  बनाया होगा  

टिमटिमाते दो तारे  रख दिए  आँखों में तुम्हारी 
और काली घटाओं से, बालों को   बनाया   होगा 


होठ  ऐसे  के,  लगे   नाजुक  पंखुड़ी कमल  की हो 
कमल की पखुडिया वो    कैसे   तराश  पाया होगा 


इतने  तीखे  नयन -नक्श  बनाये   होगे   जिससे 
उस  औजार को वो जाने  कहाँ    से    लाया   होगा 


जिस्म   ऐसा,  जैसे   नदी  गिरती हो उठ जाती हो 
नदी   को   सांचे   में,  वो   कैसे ढाल   पाया   होगा


चाँद   से     नूर    थोडा,    खुदा   ने   उठाया   होगा 

जब तुम्हारे जिस्म की रंगत   को   बनाया   होगा 



( चित्र साभार -गूगल इमैज )
















Tuesday 6 December 2011

करके  अहसान  किसी  पर,  अगर  जता  भी   दिया
तो फिर वो अहसान  कैसा, किया, किया,  ना  किया

रहो   खामोश,   अगर        दर्द   किसी    का     बांटो 
करोगे चर्चे तो फिर गम हल्का,किया,किया ना किया 


तजुर्बे,    जिन्दगी   की   राह   में   गर  काम  ना  आये 
तो फिर वो खाक तजुर्बा   था,किया,  किया,   ना किया

तुम्हारी    हसरतों    पर  गर   पकड रही   ना तुम्हारी
जिया तो जीवन तुम ने,मगर जिया, जिया,  ना जिया


किसी   की   आँख   के आंसू ,  अगर  तुम पौंछ ना पाए 
सजदे   में  सर   खुदा   के ,   दिया,   दिया,    ना   दिया 


सफाई    दिल   की कालिख की अगर तुम कर नहीं पाए
स्नान  गंगा      में   जाकर,  किया,   किया,   ना   किया 


तुम्हारे    घर   में   ही   गर  तुम  पे  उठ  रही है उंगलियाँ
सलाम  दुनिया   ने   तुम   को,  किया,   किया,  ना किया 


पुकारे  जब   भी   धरती   माँ,  तो   उठ  चलना   हुंकार  के
कहेगी  वरना  ये धरा,  जन्म इस ने लिया,लिया,ना लिया

Monday 5 December 2011

अखतर जी की ४ कविताओं की अनोखी श्रृंखला

                    
    असतो  मा

  निर्बंध कुछ भी नहीं है शायद.
एक व्याकरण है
तुम्हारी भावनाओं में भी !
कभी कभी तो,
कारण-कार्य सम्बन्ध से अधिक शक्तिशाली  लगता है
आवश्यकता और आविष्कार का सीकरण,
हमारे संबंधों में भी.
और फिर,
दर्द भी तो नहीं होता है
कभी
खाल के नीचे
हम दोनों में से किसी को.
आओ, हम भी
अपनी खालें बदलना सीख लें.
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                                       मृत्योर्मा

छोड़ो भी,
अब तो वह बात पुरानी है.
हाँ था,
वह भी एक समय था अपने जीवन में .
तब मैं मैं था,
तब तुम तूम थे .
और हम दोनों,
एक अनूठे 'हम' के भाग बने रहते थे.
लगता था बस यह जीवन है,
लगता था बस स्वर्ग यही है.
लेकिन छोड़ो
 यह बातें तो
गुज़रे बीते उस कल की हैं
जिसका परमानेंट एड्रेस
कभी किसी के हाथ न आया.
आज तो मैं भी
उस 'मैं' से बिलकुल ही अलग कोई सा मैं हूँ,
जिसके जाने कितने क़िस्से,
कितने   'हम' का भाग बने बिखरे से पड़े हैं.
और तुम भी तो,
जाने कौन सा 'मैं' बन कर अब
जाने किस या कितने 'हम' में जुड़ से गए हो.
छोड़ो अब वोह पुरानी बातें.
अब तो वोह कल बीत चुका है.
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                                                जाड्यो मा
मैं क्या जानूं उपवन में,
कलियों के चटखने की भाषा को,
दूर पहाड़ों के झरनों की गति जैसा संगीत कभी
मेरे कानों में कब घोल सकी
 मादक मुस्कान किसी की.
समीकरण मधुभरे तुम्हारे नयनों की चंचल चितवन का,
घर की अंगनाई में उतरती,
पौषप्रात की धूप की गर्म उजियारी से क्या है,
मैं क्या जानूं.
मेरे घर के गंदे से गुलदान में ठूंसे
फूल प्लास्टिक के,
खा रहे धुल न जाने कब से .
मेरे घर में कभी कभी ही तो नल में पानी आता है.
मेरे कमरे में एक अंधा बल्ब जला करता है दिन भर.
(दिन भर तो क्या,
दिन भर में जब भी बिजली आती है)
मेरे घर में तो गर्मी होती है,
बस चूल्हे से या ग़ुस्से से.
मैं न समझ पाऊँगा यह उपमाएं .
इस भाषा को सीख सकूं
इतना मेरा सामर्थ्य कहाँ  है.
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                      तमसो  मा

अन्धकार,
घोर गहन और निस्सीम,
क्रूर भयानक अन्धकार.
अट्टहास में डूबी हुई है जिसकी नीरवता,
अन्तास्राल में खो सा गया है जिसका हर छोर.
सब कहते हैं ,
मई ही हूँ यह अन्धकार -
यही है मेरा अस्तित्व,
मेरी पहचान,
मेरी परिभाषा.
पर,
लोक वाणी के देवत्व पर
उलाहने  की रोली लगा   की
इस तमसागर की कुंठित गहराइयों में
किसी निश्छल निष्पाप श्वेतात्मा की तलाश में मग्न
तुम्हारा थका थका सा अजेय विश्वास
मुझे आस्तिक बना देता है.

         अखतर किदवाई

Saturday 3 December 2011

हम को खूब आता है

  गम  पी    कर    मुस्काते    जाना,  हम    को      खूब        आता  है
आग    हथेली         पर   सुलगाना,    हम     को    खूब    आता      है


दिल  में    घाव  छुपे   है   उतने,        जितने    तारे       आसमान      में
और्रों के   घाव  भर     देना,    खुशियाँ  बिखराना हम  को   खूब आता है


आह    उठे   जब    भी     दिल  में,      हम     हंस  कर    उसे   छुपा  जाते  
अरे ये   तो  ख़ुशी  के  आंसू   है,  ये  बहाना,   हम   को      खूब   आता   है


गम     और      तनहाइयाँ        ही   तो       अपने     सच्चे     साथी   है
और      साथियों    का  साथ    निभाना,   हम   को   खूब    आता      है  


ईश्वर   ने    जो   हमे    दिया   वो    सिर्फ   हमारा    ही   तो    नहीं   है 
मिल   बाँट   कर    सब   संग    खाना ,  हम    को    खूब      आता    है 

 

Thursday 1 December 2011

बातें करतें है

वो जब मुझ को ना देखें तब  भी  , नजर क्यूँ   बार   बार   झुकती है ?
ह्या की लाली आके गालों  पर ,उनके    तकनें    की   राह  तकती  है

दिल में तो लाखों बातें चलती है ,जुबां तक आ  के फिर  क्यूँ रूकती है
धडकने तेज होती जाती है ,दिल     में   एक पीर   सी   भी   उठती  है

होठ थरथराते है, चुप ही  रहतें है ,उन के आगे हम 'बुत' ही रहते है
साँसें  चलना भी भूल जाती है ,नज़रें  धरती में   गड सी   जाती   है

मैं उन की खामोशियों को सुनती हूँ,वो मेरी खामोशियों को   सुनते है
रात भर नींद अब आती ही नहीं, दिन भर अब ख्वाब ,ख्वाब बुनते है

बात गर हम शुरू कर भी दें तो , दुनिया, जहाँ   की  बातें    करते  है
कौन कैसा है ,वो तो वैसा है, जाने कहाँ   कहाँ   की   बातें    करते है

अपनी बातों की बात छोड़ कर हम , धरती आसमाँ की बातें करते है
जो जरूरी है वो तो रह ही जाता है ,और हम यहाँ वहां की बातें करते है

अब जो मिलना हुआ तो कह देगें ,आओ   अब   अपनी  बातें   करते है
कैसे कटते  है दिन तुम्हारे बिन,उन , सुबह-शामों  की  बाते   करते  है......
 







Wednesday 30 November 2011

एक वोह ज़िन्दगी से प्यारा जो

एक वोह ज़िन्दगी से प्यारा जो
एक  मैं  ज़िन्दगी  से   हारा   जो.

तुम हो जो ख्वाब ख्वाब जीते हो
मैं तो वोह, सारे ख्वाब हारा जो.

ले   गया  लुट कर     मेरा   सूरज
नाकसो कस  का था सहारा जो.

वोह भी अब रौशनी से डरता है
था कभी सुब्ह का सितारा  जो.

आज भी उसके आसरे हैं आप
आज भी    बेकसों    बेचारा जो.

मैं न कहता था वोह किसी का नहीं
कभी    मेरा   कभी   तुम्हारा   जो.

(नाकसो  कस = each and every body)

   --------- akhtar किदवाई

Tuesday 29 November 2011

तुम को ढूंढा है

हर      सुबह     हर    शाम    तुम   को   ढूंढा है 
 हमने,  उम्र     तमाम      तुम   को     ढूंढा    है 



हर   शहर    की      ख़ाक      छान     मारी     है 
कभी छुप के ,कभी सरे आम   तुम   को  ढूंढा है 



हर फूल,हर कली ,को  बताया  है   हुलिया    तुम्हारा  
चेहरे का हर एक निशाँ ,करके ब्यान ,तुम को ढूंढा है

  

छुपे हो जरुर तुम  किसी  और लोक में, वरना   तो 
ज़मी सारी छानी ,फिर  आसमान पे, तुम को ढूंढा है 

Monday 28 November 2011

कविता


कविता, ये    कविता   आखिर  क्या  होती  है !

तेरे और मेरे जीवन की इसमें छुपी व्यथा होती है!!

कभी तो हंसती, मुस्काती, कभी ये बार बार रोती है!

पावँ में  इस के कभी है छाले,कभी रिसते घाव  धोती है!!

कविता, ये  कविता आखिर क्या होती है .............. 

मन की तड़प  छुपा लेती और बीज ख़ुशी के ये बोती है!

सपन सलोने हम को देती,पर क्या कभी खुद भी सोती है!!

कविता,  ये  कविता आखिर क्या  होती है............ 

उम्मीदे न टूटे हमारी, सदा ये यत्न प्रयत्न करती  है !

न उम्मीदी की कई गठरियाँ, ये चुपके चुपके  ढ़ोती है!! 

 कविता, ये  कविता आखिर  क्या होती है....



Saturday 26 November 2011

जिंदगी

आज फिर तेरे एक शुष्क पहलु  को देखा जिंदगी 
अश्रु-जल आँखों में   थे, बहने  से  रोका  जिंदगी  

हर इंसान की उम्मीद को, तू क्यूँ देती धोका जिंदगी?
क्यूँ  तुझे  हर कोई,  अच्छा   लगे   है रोता,  जिंदगी ?

क्यूँ तू  इतनी कठोर   है,पत्थर  सी  लगती जिंदगी ?
क्यूँ कोई   स्नेह -अंकुर  तुझ  में   ना  फुटा जिंदगी ?

हर  क्षण    ,हर   पल   तू   दर्द   सब     को   दे   रही
काश ,कभी   कोई तेरा   अपना    भी  रोता   जिंदगी 

सदा बन ,कराल-कालिका तू मृत्यु   का    नर्तन   करे
काश  कोई  शिव आ  के तुझ   को  रोक   लेता जिंदगी

 

 

Friday 25 November 2011

तैयार रहो




बहुत   कठिन    सफ़र   पे   जाना   है ,    तैयार    रहो  
कई पथ्थरों   ने   राह    में    आना   है    तैयार    रहो

 अभी    चाहो   तो   कदम   पीछे  हटा   भी सकते    हो 
चल      पड़ोगे तो    मंजिल  को  पाना   है    तैयार  रहो

रुके  तो   मन  पछतायेगा,  कोसोगे    सदा    खुद    को  
मंजिल   पर पहुचे  तो ठोकर में जमाना  है   तैयार  रहो 




              नव-जीवन 

इन    सूखे      पत्तों      की    हरियाली      अब     खो   चुकी    है 
अब     कुछ      दिन    और      बचे      है     इन       के         पास

कुछ      दिनों     में       ये     सुखेगे    ,   टूटेगे  ,   गिर      जायेगे 
क्या      फिर      ये    परम        शांति           को       पा       जायेगे?

या  जमीन के किसी   कोने   में    पड़े      चिखेगें  ,    चिल्लायेगे   के  
हमे   तो   अभी     भी   पेड    की   वो    कोमल      डाली      भाती   है

डाल   पर   वापस  जा  लगें  ,  ये   इच्छा    रोज   बढती   जाती   है\
अब कौन समझाये  इन   पत्तों को, के   सृष्टि के   नियम   से चलो

टूटने के बाद ,पहले धरती में मिलो,गलों और फिर किसी नव-अंकुर 
की नसों में  बनके  उर्जा बहों , उस   के प्राणों  का  एक  हिस्सा  बनो

तब कहीं  तुम   दोबारा  पत्ते    बनने     का  अवसर   पा    सकते    हो 
वरना तो यूँ ही इस  कोने  में पड़े पड़े बस  रो सकते हो चिल्ला सकते हो. 

Wednesday 23 November 2011

बादल

ये    बादल   क्यूँ   यूँ    आवारा    फिरते    है?  क्या   इनका   कभी,  कहीं 
 ठहरने का  मन नहीं  करता?  कोई   घर  नहीं  जंचता  इन्हें  अपने   लिए 


किसी   पहाड़    की  कन्दरा   में    कुछ   दिन    रुक   कर या  किसी आंचल 
की छाँव में ठहर ,अंतहीन सफर की थकान मिटाने की  इच्छा  नहीं   जगी ?


शायद ये   इच्छा   तो  जरुर  जागी   होगी   इन   के  मन   में , लेकिन
पता भी  है  अपनी  मज़बूरी  का , के  कहीं  पर   अधिक   ठहरने    की

इजाजत नहीं है ,मोह के बन्धन   बाँध  कर   अपने    कर्म  का  निर्वाह 
करना कितना मुश्किल होगा ,ये   समझ   आता   है   शायद   इन  को 


अपने   अरमानों   की   लाश   उठाये   ये  निरंतर   चलते  रहते  होगें
ताकि   किसी   के  सूखते   अरमानों   को   अपनी   नमी से सींच सके 

"आवारा बादल"  कह    कर  कोई   भी   ना   करे    अपमान    इनका 
ये तो कर्म योगी है जो खुद को तप की  अग्नि  में तपा कर,सब के जीवन 
 में प्राणों का   संचार करते   है ,खुद को मिटा,  हम सब का उद्धार करते है







Monday 21 November 2011

प्रकृति और नारी

मैं हवा हूँ ,मुझे बाँध सके कोई 
इतनी बिसात कहाँ है किसी में 
बाँधने वाले को भी साथ उड़ा कर ले
ले जा  सकती    हूँ  मैं  .......

दहकती  ज्वाला हूँ   मैं......
मेरा   सम्मान करने वाले
मुझ    से   जीवन  पाते  है
बाकि सब मेरी धधकती लपटों 
 में जल कर खो  जाते   है  ...

कल कल कर बहता नीर भी मैं  हूँ
चाहूँ तो प्यास बुझा  दूँ ,जग की
चाहूँ  तो सब को  बहा  ले  जाऊं  
जीवन और मृत्य ,मेरे ही पहलु है



धैर्य   से   टिकी    धरा   हूँ   मैं 
तुम्हारे हर   कर्म को,  व्यवहार को  
चुपचाप  सहती हूँ ,शांत     रह  कर
पर मेरी जरा सी कसमसाहट 
तुम्हारे  मन  और जीवन में 
भूचाल भी    ला  सकती   है  

अपनी   विशालता   में   सब    को 
समेटे ,आकाश हूँ, सब पर स्नेह -जल
बरसा कर नव-जीवन का संचार करूँ
अत्याचार  अधिक  बढ़े   तो  ,प्रकोपित
बिजलियाँ   गिरा, विनाश   भी  करूँ 

मेरा नाम प्रकृति है या नारी, ये आप ही
निर्णय कीजिये ,हम जुड़वाँ बहनों सी ही 
तो है ,बहुत अधिक अंतर नहीं होगा शायद 
हम दोनों में ,क्या  ख्याल  है इस बारे में ??








  

Sunday 20 November 2011

ये एक अच्छी बात हुई

सब कुछ खो कर खुद को पाया ये एक अच्छी बात हुई
गयी रात्री,प्रभात नव  छाया , ये एक अच्छी बात हुई

गिरे पुराने पात  वृक्ष   से, नव   पल्लव   अब    फुटेगे
फूल  खिलेगे  हर   डाली   पर   ,  पंछी   चहकेगे /कुकेंगें
हरीतिमा का अब राज्य है आया,ये एक अच्छी बात हुई

उर्जा मन में बढती   जाती  कुछ  करके  दिखलाने  की
पीकर दर्द जहां के सारे, खुशियों के   गीत     सुनाने की
आज फिर गीत ख़ुशी  का  गाया ये एक अच्छी बात हुई 


दीप जला कर  खुशियों  के, अब  हम  सब में  खुशियाँ  बाँट   रहें
क्यूंकि ,अन्धकार में जो पल काटे वो अब तक हम को  याद रहें
पर अन्धकार  हमे  छु  भी ना   पाया ये   एक    अच्छी बात हुई

( अवन्ती सिंह ) 

Saturday 19 November 2011

नारी

रामायण से महाभारत तक
हर युग में नारी की एक ही कहानी है, 
विचित्र उसकी व्यथा,
विचित्र उसकी जिंदगानी है |

कभी खेल में जीती जाती है.
कभी जुए में हारी जाती है |
निज स्वाभिमान को खोजती,
अनल सी जलती जाती है,
पृथा सी हर कष्ट झेले जाती है|

क्यूँ नारी को ही अग्नि-परीक्षा देनी है पड़ती,
क्यूँ नारी ही प्रश्न चिन्ह पर पाई जाती है |
दुर्गा सी पूजी जाने वाली, लक्ष्मी सी मर्यादित,
लहू ह्रदय का दे संतानों को पोषा नारी ने,
नर से बढ़ कर कार्य किये नारी ने
फिर भी क्यूँ हाशिये पे पाई जाती है |

नर जब होता हतास
स्त्री ही पूर्णता लाती जीवन में,
नर हो जब निराश
स्त्री ही आत्मीयता दर्शाती जीवन में,
फिर भी सामग्री यह विलाशिता की क्यूँ समझी जाती है |

जाग रहा अब समाज,
मानसिकता पुरुषों को भी बदलनी होगी,
सहचरी वो जीवन की,
सन्मान दे स्तिथियाँ भी बदलनी होंगी,
चरितार्थ करना होगा,
यामा की परिभाषा कैसे नयी बनाई जाती है |
( सुरेश चौधरी  )

Thursday 17 November 2011

मुद्दतों पहले जो  डूबी थी   वो  पूंजी   मिल गयी 
जो कभी दरिया में फेंकी थी वो  नेकी  मिल गयी

ख़ुदकुशी  करने  पे  आमादा  थी  नाकामी  मेरी 
फिर मुझे दिवार  पर  चढ़ती  ये चीटी मिल गयी 


मैं इसी मिटटी से  उठ्ठा  था  बबूले  की तरह,और 
 फिर एक दिन  इसी  मिट्टी में मिट्टी  मिल  गयी 


मैं इसे इनाम  समझूँ  या   सज़ा   का नाम दूँ 
उंगलियाँ कटते ही तोहफे में अंगूठी मिल गयी 

फिर किसी ने लक्ष्मी देवी को ठोकर मार दी
आज कूड़ेदान में फिर एक बच्ची मिल गयी  


(मुनव्वर राना)

 

Tuesday 15 November 2011

मध्य

 जीवन   रूपी  पुल  के  मध्य  में  खड़े   रहना  मुझे  बहुत    भाता   है
मध्य में खड़े  रहने  से   दोनों तरफ का दृश्य   साफ़  नज़र     आता   है

दुःख और सुख के बीच की हलकी सी लकीर जब हम  को नज़र आने लगती है
तो जिंदगी  एक   अनसुने   राग   में, निशब्द   गीत  गुनगुनाने   लगती  है

मंजिल किसी एक अंत पर   जाकर   ही  मिलेगी,  ये नियम    तो नहीं है
जहाँ पहुच कर पूर्णता और शांति उपलब्ध  हो जाये, मंजिल  तो   वही  है

सुख और दुःख के मध्य की अवस्था में मैं  खुद को  आनन्द से भरा  पा रही हूँ
इस    लिए ठहरी  हूँ   यहीं , ना  इधर  जा   रही  हूँ     ना   उधर   जा   रही   हूँ  






Friday 11 November 2011

सब कुछ खो कर खुद को पाया ये एक अच्छी बात हुई
गयी रात्री,प्रभात नव  छाया , ये एक अच्छी बात हुई

गिरे पुराने पात  वृक्ष   से, नव   पल्लव   अब    फुटेगे
फूल  खिलेगे  हर   डाली   पर   ,  पंछी   चहकेगे /कुकेंगें
हरीतिमा का अब राज्य है आया,ये एक अच्छी बात हुई

उर्जा मन में बढती जाती कुछ करके दिखलाने की
पीकर दर्द जहां के सारे, खुशियों के गीत सुनाने की
आज फिर गीत ख़ुशी  का  गाया ये एक अच्छी बात हुई 


दीप जला कर  खुशियों  के, अब  हम  सब में  खुशियाँ  बाँट   रहें
क्यूंकि ,अन्धकार में जो पल काटे वो अब तक हम को  याद रहें
पर अन्धकार  हमे  छु  भी ना   पाया ये   एक    अच्छी बात हुई







 








Wednesday 9 November 2011

शायद उस ने मुझ को तनहा देख लिया है!
दुःख ने मेरे घर का  रास्ता  देख  लिया  है!!

अपने आप से आँख चुराए फिरती हूँ मैं!
आईने में किस का चेहरा देख लिया है !!

उसने मुझे दरअसल कभी चाह ही नहीं था!
खुद  को  दे कर ये  भी धोका देख  लिया  है !!

रुखसत करने    के आदाब  निभाने  ही थे!
बंद आँखों से उस को जाता देख  लिया  है!!

शायद उस ने मुझ को तनहा देख लिया है!
दुःख ने मेरे घर का  रास्ता  देख  लिया  है! 
        


    WASEEM SHIGRI

Tuesday 8 November 2011

ये कविता आज कल के माहौल पर लिखने की कोशिश की है ,अजब तमाशा देखने को मिलता है ,जो भी आवाज़ उठता है ,उसे दबाने के लिए कुछ दिन बाद उस इंसान को ही गलत साबित करने की पुरजोर कोशिश की जाती है,कुछ पंक्तियाँ लिखी है उम्मीद है आप सब को पसंद आयेंगी ..... 

किस ओर से चले हम ,किस ओर जा रहे है?
हीरे को छोड़ कर  हम  पत्थर  उठा   रहे  है  

हद पागलपन की भी तो हम पार कर चुके है
हीरे  को   पत्थरों की   कीमत    बता  रहे  है

आदर्श , समझ, सोच , सब धुल में मिले है 
और धुल को उठा कर ,चेहरे  सजा    रहे   है 

दोष और को न देना हम खुद ही खुद के दुश्मन 
जिस ड़ाल  पर  है  बैठे  , उसे  खुद जला  रहे  है

किस ओर से चले हम ,किस ओर जा रहे है?
हीरे को छोड़ कर  हम  पत्थर  उठा   रहे  है

( अवन्ती सिंह )


 






Monday 7 November 2011

मेरी दास्ताँ ऐ हसरत  वो सुना सुना के रोये 
मुझे आजमाने वाले मुझे  आजमा  के  रोये

जो सुनाई अंजुमन ने शबे गम की आप बीती
कई रो के मुस्कराए ,कई  मुस्करा  के  रोये

कोई ऐसा अहले दिल हो जो, फसाना ऐ मोहोब्बत
मैं उसे सुना के रोऊँ  वो मुझे  सुना  के  रोये  

मैं हूँ बे वतन मुसाफिर, मेरा नाम बेबसी है 
मेरा कौन  है जहां में,जो गले लगा  के  रोये 

मेरी दास्ताँ ऐ हसरत  वो सुना सुना के रोये 
मुझे आजमाने वाले मुझे  आजमा  के  रोये

(अनजान शायर )
 

Sunday 6 November 2011

आज २ नवंबर २०११ दोपहर २.१९ मिनट पर. मेरे पुत्र चि: रितेश के घर लक्ष्मी रूपेण कन्या ने जन्म लिया है, मेरी एक भावना

 

 

मेरा जीवन दीप जलाने आयी,
मेरे उत्सुक मन की आशावरी,
प्रभा-मुख सजाये,
सुखद अनुभूति धारित,
हरित-मन-प्रसारित,
चन्दन-शीतल-आनन्दित,
तन हर्षित,
मन हर्षित,
मेरे जीवन की  विभावरी |

आयी तू लिए,
आकांक्षाएं,
हो रही,
ह्रदय-स्थल पर
अदभुत अनुभूतियाँ ,
जलने लगा अब,
आशाओं का नया दिया,
तू साक्षात् विष्णु-प्रिया,

अभिलाषाओं की संचित
जीवन-शृंगार प्रभावारी,
मानस-पटल पर शीतल-जल-बावरी,
मेरे जीवन की  विभावरी |
=====0====

सुरेश चौधरी
तुम जो कहना  चाहो वो मेरे    लब   पे   पहले आता है 
हमारे    विचारो    का    मेल   मुझे   बहुत    भाता   है  

कितने   लोगों   का   दिल   इस    तरह   मिल  पाता  है?
तुम   से  जुदाई     का  ख्याल    भी   मुझे   सताता   है 

तुम्हारी  आँखों   में , मेरे  लिए जब    प्यार   झिलमिलाता है  
लगे ऐसा के जैसे चाँद को देख कर ,चकोर कोई कसमसाता है 

कभी ,     कहीं   जब  कोई   प्रीत    के   गीत    गुनगुनाता     है
लगे के   हमारी   दास्ताँ     दुनिया   को     वो   सुनाता    है 


तुम जो   कहना  चाहो वो  मेरे    लब   पे   पहले  आता  है 
हमारे    विचारो    का    मेल   मुझे   बहुत    भाता     है











   







Saturday 5 November 2011

एक वृक्ष को माध्यम बना कर मैं उन लोगों का दर्द आप सब तक पहुचाना चाहती हूँ जिनकी उंगली पकड़ कर हम चलते है और जब उन्हें हमारे सहारे की जरूरत होती है तो हम अपनी अलग दुनिया बना उस में खो जाते है ,अपनी जड़ों को भूल जाते है हम........


 मैं एक सुखा वृक्ष  हूँ,कई जगह से टुटा वृक्ष  हूँ
लेकिन मेरी शाखाएं  इतनी विशाल है के अभी भी 
 कई राहगीरों को  धुप से बचाता हूँ , छुपाता  हूँ   

मैं तडपता हूँ, रोता हूँ खून के आंसू  लेकिन जला  कर खुद को 
दुनिया वालो को अभी भी  ठण्ड  से  बचाता  हूँ  ,हंसाता  हूँ 

मुझ में अब एक भी अंकुर न फूटेगा ये  तय  है  लेकिन
कई नए  पौधों  के  अभी   भी  मैं घर- बार   चलाता    हूँ 

हुजूम चारों  तरफ  है मेरे, घिरा   हूँ वृक्षों   से  लेकिन,  
अकेला हूँ अभी भी ,अकेलेपन से मैं आज भी घबराता हूँ 

Friday 4 November 2011

दिल के करीब

ये कविता मैं ने लगभग २ महीने पहले लिखी थी पर अभी तक मैं ने इसे किसी को सुनाया या लिखा  नहीं है,
ये कविता मेरे दिल के बहुत करीब है, अजीज है मुझे ,उम्मीद है  आप सब  को  भी पसंद आएगी..... 

अब मैं  कविताओ  के  प्रकार  बदलने   लगी  हूँ 
आकर  बदलने  लगी  हूँ,  व्यव्हार  बदले  लगी हूँ  

कब तक कवितायेँ सावन की   फुहारें  लाती जाएगी 
कब तक मेघा  बन  बरसेगी,मल्हार  गाती  जाएगी
इन भीगी कविताओ के वस्त्र ,इस बार बदलने लगी हूँ 
अब   मैं  कविताओं  के  प्रकार   बदलने    लगी   हूँ 

कब तक श्रृंगार -रस  में डूबी  रास रचाएगी   कवितायें  
कब तक नृत्य करेगीं  कब तक मन बहलाएगी कवितायेँ 
मैं  अब  इनके  सारे  हार   श्रृंगार  बदलने   लगी   हूँ 
अब  मैं  कविताओं   के   प्रकार   बदलने   लगी   हूँ   

कब तक वीर-रस के  ढोल  नगाड़े   पीटेगी कवितायेँ 
कब तक इन्कलाब के नारे ,चिल्लाएगी , चीखेगी कविताये
अब  इनके  हाथों  की  मैं,  तलवार    बदलने  लगी   हूँ   
अब  मैं   कविताओं  के   प्रकार  बदलने   लगी   हूँ 

कब तक सब की आँखों में अश्रु-जल छलकाएगी कविताये 
कब  तक  रोयेगीं,    तरसेगीं,    तड़पायेगी   कवितायेँ 
इन की  सृष्टी  और  इनका   संसार  बदलने  लगी   हूँ
अब   मैं   कविताओ   के  प्रकार   बदलने     लगी     हूँ 

Thursday 3 November 2011

सूरज ,सितारे,चाँद मेरे  साथ  में रहे !
जब तक तुमारे हाथ  मेरे हाथ  में रहे!!

शाखों से टूट जाये वो पत्ते नहीं है हम!
आंधी से कोई कह दे  के औकात  में रहे!!

कभी महक की तरह हम गुलो से उड़ते है!
कभी  धुएं  की तरह  पर्वतों से  उड़ते है!!

ये कैचियां हमे उड़ने से  खाक  रोकेगी !
हम परों  से नहीं,  हौसलों  से  उड़ते है !!

( राहत इन्दोरी )
 

Wednesday 2 November 2011

उंगलियाँ यूँ ना सब पर उठाया करो 
खर्च करने से पहले कमाया करो

जिंदगी क्या है खुद ही समझ जाओगे 
बारिशों  में  पतंगें   उड़ाया   करो 

शाम के बाद,   तुम जब सहर देखो 
कुछ फकीरों को खाना खिलाया करो

दोस्तों से  मुलाकात  के नाम पर 
नीम की पत्तियों को  चबाया करो 

घर उसी का सही तुम भी हक़ दार हो 
रोज आया करो ,रोज  जाया  करो
  ( राहत इन्दौरी  )
 
        ग़ज़ल 

जो मुश्किल में शरीके गम नहीं है !
मेरे  साथी  मेरे  हमदम  नहीं   है !!

ये  माना  एक  से  है  एक   बेहतर!
मगर हम भी किसी से कम नहीं है!! 

तेरे जलवो में जिस ने होश खोये
वो कोई  और  होगा  हम   नहीं  है

(अनजान शायर )