Wednesday 9 January 2013

एक पुरानी रचना



भेड़ की खाल  में  कुछ   भेड़िये   भी  बैठे  है 
लिबासे इंसान में कुछ  जानवर   भी  बैठे है  

शर्मो ह्या को बेच  आये  है जा  के  बाज़ार  में
और कुटिल मुस्कान चेहरे पर सजा कर बैठे है 


घर की बहन बेटियों को भी  आती  होगी  शर्म इन पर 
जो दिखावे को ,   कई राखियाँ  बंधा    कर   बैठे   है 

जायेगे जब दुनिया से ये, लेगी राहत की साँसे धरती भी 
जाने कब से उस के आंचल को, ये  पाँव तले दबा कर बैठे है