मिलते हुए प्रतीत होते है और कवि-मन तो उनके बीच के
वार्तालाप को सुन भी पाता है,........
रोज सुबह की तरह मैं आज भी उगते सुरज को निहार रही थी!
अचानक लगा ऐसे जैसे धरती आकाश को पुकार रही थी!!
हे! गगन हे! आकाश,फिर से अपनी बादल रुपी बाहें फैलाओ ना!
कई दिन से हो दूर दूर, आज फिर हृदय से लगाओ ना!!
जब तुम अपना स्नेह, जल के रूप मे बरसते हो!
तब तुम नव जीवन का मुझ मे संचार कर जाते हो!!
फिर मैं हरीतिमा की चुनर औड कर,करके फूलों से शृंगार!
अपने बालक रुपी जीवों मे बाँट देती हूँ, तुम्हारे सनेह से उपजे उपहार!!
हमारे इसी मिलन से तो निरंतर,चलता रहता है सृष्टि का कारोबार!!!
(पुरानी रचना )