के कलम आतुर हो उठेगी शब्दों की बरसात करने को
जाने कब मन की वेदनाएँ होगी इतनी असहनीय ,के
मन ,मना कर पायेगा समाज के उलझे-2 नियमों को मानने से
जाने कब करुणा का सागर ,सब तटबंधों को तोड़ कर खुद में समाहित कर पायेगा
हर दुखी , लाचार को, अपने पराये का विचार किये बिना
जाने कब ,प्रेम इतना उदार बन पायेगा ,के हर कमी हर गलती को
कर पायेगा नज़र अंदाज़ और खुद के अस्तित्व को रख पायेगा हर परिस्तिथि में बरकरार