Thursday 6 September 2012

प्रेम और उपासना



एक पुरानी  रचना   (प्रेम और उपासना )

प्रेम और   उपासना   में   बहुत    अधिक  फर्क नहीं  है
बशर्ते के     दोनों      में   पावनता   हो,  पवित्रता  हो

प्रेम    को    उपासना     भी    बनाया   जा  सकता   है
और उपासना को प्रेम भी   बनाया    जा     सकता     है

जिस से प्रेम हो, मन से उस की उपासना भी की जाये 
प्रेम  की पराकाष्ठा   पर   पंहुचा   जा    सकता      है

और जिस की उपासना की जाये यदि उससे प्रेम भी किया जाये
  तो   परम     उपलब्धि      को  प्राप्त     किया    जा  सकता है

कितनी    मिलती     जुलती     है ना    दोनों     ही     बातें ?
प्रेम   में   अगर   वासना ना हो ,और   उपासना  में ईश्वर से
 कुछ   चाहना    ना    हो ,    कुछ    भी    मांगना     ना    हो

तो प्रेम ही     उपासना     है ,और उपासना    ही प्रेम है
नाम है   जुदा   जुदा    पर   अंततः     तो      एक     है  
( अवन्ती सिंह  )





 


Tuesday 4 September 2012

अकेलापन

भटकती हुई रूहें है यहाँ,
अपने जिस्म को छोड़ कर
भटक रही है दर -बदर
तलाश रही है किसी साथी को
किसी अपने को ,जो दूर कर दे
अकेलेपन के अहसास को ....
पर हर साथी के भीतर पल रहा है
अकेलेपन का खौफनाक अहसास
वो अहसास कभी खत्म नहीं होता
न   भीड़ में  न   मेले में .....
क्या कोई राह नहीं जो खत्म कर सके
इस अकेलेपन के विषधर नाग को
है ,राह तो है पर उस पर हम चल ही नहीं पाते है
हम सदा अपने अकेलेपन को दूर करने की राह तलाशते है
पर हमे राह तलाशनी होगी औरों के एकाकीपन को दूर करने की
यदि हम कभी ऐसा कर पायें तो सच जानिए हमारा अकेलापन
स्वतः ही समाप्त हो जाएगा ,पर क्या हम कभी  इस राह पर चल पायेगे ???
कभी   खत्म   कर   पायेगे   किसी   के   अकेलेपन   को ?????

(अवन्ती सिंह )