खुद को जाने कितने ही पर्दों में वो छुपाये बैठे है
और फिर चेहरे पर एक मुखौटा भी लगाये बैठे है
कैसे समझेगे और कैसे जानेगे हम,के क्या है वो
झांकती हैं जो मुखौटे से,वो आँखें भी झुकाए बैठे है
हाथों के इशारे से भी तो कुछ समझाते नहीं है
और होठों पर भी चुप के ताले लगाये बैठे है
कब तलग न खोलेगे वो राज़ अपना ,कभी तो हद होगी
उसी हद की आस में ,सर को उनके दर पे झुकाए बैठे है
और फिर चेहरे पर एक मुखौटा भी लगाये बैठे है
कैसे समझेगे और कैसे जानेगे हम,के क्या है वो
झांकती हैं जो मुखौटे से,वो आँखें भी झुकाए बैठे है
हाथों के इशारे से भी तो कुछ समझाते नहीं है
और होठों पर भी चुप के ताले लगाये बैठे है
कब तलग न खोलेगे वो राज़ अपना ,कभी तो हद होगी
उसी हद की आस में ,सर को उनके दर पे झुकाए बैठे है