Tuesday 18 October 2011

मैं

हर हाल में हर दर्द में जिए जा रहा हूँ मैं
आंधी से कुछ तो सोच कर टकरा रहा हूँ मैं
मुझ पर हंसों ना तुम, मेरी हिम्मत की दाद दो
ज़र्रा हूँ  और  पहाड़ से  टकरा  रहा   हूँ   मैं
खंज़र पे मेरे खून है मेरे   ही   भाई  का
इस बार जंग जीत के पछता रहा हूँ मैं
मैं राह का चराग हूँ ,सूरज तो नहीं हूँ
जितनी मेरी बिसात है काम आ रहा हूँ मैं
(  अनजान शायर  )    

कमल का फूल

             कमल का फूल 

ये  जो कमल का फूल है , ये इस दुनिया का तो नहीं लगता
कैसे कीचड़ का एक कण भी, इसके निर्मल तन पर नहीं टिकता?

हम तो अपने आस पास बिखरे दुर्गुणों से निर्लेप रह पाते  नहीं है ?
 मन  को अपने  हम  क्यूँ   इतना  स्वच्छ  रख पाते   नहीं  है ?

इस ही कमी के कारण शायद  हम  ईश्वर को  नहीं    पा  पाते    है और 
कमल सहज ही ईश्वर के चरणों में,हाथों में और मस्तक पर चढ़ जाते है !

   




 

नव जीवन

              नव-जीवन 

इन  पत्तों  की  हरियाली  अब  खो चुकी है 
अब  कुछ  दिन  और  बचे  है  इन  के  पास
कुछ दिनों में ये सुखेगे, टूटेगे ,गिर    जायेगे 
क्या फिर  ये परम  शांति को  पा    जायेगे?
या किसी कोने में पड़े   चिखेगें  , चिल्लायेगे के 
हमे तो अभी भी पेड़  की वो कोमल डाली भाती है 
डाल पर वापस जा लगें,ये इच्छा रोज बढती जाती है
अब कौन समझाये इन पत्तों को, के सृष्टि के नियम से चलो
टूटने के बाद ,पहले धरती में मिलो,गलों और फिर किसी नव-अंकुर 
की नसों में  बनके  उर्जा बहों , उस के प्राणों  का  एक  हिस्सा  बनो 
तब कहीं  तुम   दोबारा  पत्ते  बनने  का  अवसर   पा    सकते    हो 
वरना तो यूँ ही इस  कोने  में पड़े पड़े बस  रो सकते हो चिल्ला सकते हो. 

( अवन्ती सिंह )