नव गीत का निर्माण
तुम यूँ ही मुस्कराते रहो मेरे सामने बैठ कर
मैं प्रीत से भरे नव गीत का निर्माण करूँ
तुम अपने मन की मधुरता बिखरते रहो यूँ ही
मैं उस मधुरता से अपने गीतों में प्रेम भरूं
अपनी आँखों की चमक मुझ तक ऐसे ही पहुचने दो
समेट कर उसे ,उस से मैं शब्दों के लिए कुछ गहने गढ़ूं
तुम्हारे प्रेम की महक, जो घेर रही है मुझे चारों और से
इस से ही तो महकेगी मेरी ये बिना सुगंध की कविता
अभी मत उठो यहाँ से, रुको क्या तुम अब तक नहीं समझे ,
तुम्हारे होने से ही तो बह रही है मुझ में से छन्द और बंधों की सरिता
लो तुम हो जाने को बेकरार इतना ,तो मैं कविता को पूर्ण करती हूँ
तुम्हारे होने से इसे लिख पाई हूँ सो इस का पूरा श्रेय तुम्हे समर्पित करती हूँ
ख़त एक तुम को लिखने का मन है भगवन
क्या पता है तुम्हारा? किस धाम लिखूं ?
मन्दिर में हो?गिरिजा में हो? या मस्जिद में पैगाम लिखूं ?
तुम नाम भी अपना बतला दो ,राम लिखूं या रहमान लिखूं?
धरती, अम्बर सूरज लिख दूँ या सुबह लिखूं या शाम लिखूं ?
कह कर तुम को अल्लाह पुकारूँ या जगन्नाथ भगवान लिखूं
तुम महावीर हो या नानक हो तुम? पर हम सब के पालक हो तुम
निवास निर्धारित है क्या तुम्हारा? गीता में हो? या कुरान लिखूं?
किस देश में हो?किस वेश में हो? किस हाल में? परिवेश में हो ?
किसी पथ्थर की मूर्त में हो या काबे की सुरत में हो?या गुरुग्रंथ स्थान लिखूं?
तुम निराकार हो या साकार हो तुम ? एक हो या अनेक प्रकार हो तुम ?
रुक्मणी के महल में रहते हो? या मीरा का ग्राम स्थान लिखूं?
ख़त एक तुम को लिखने का मन है भगवन
क्या पता है तुम्हारा? किस धाम लिखूं ?..............