Tuesday, 20 December 2011

ग़ज़ल

कर    लो   अपने   दर्द   को  दूकान कर सको
तुम मीर कब हो जम्मा  जो दीवान कर सको


कद शहर तो क्या घर में भी ऊँचा ना हो सका
बस है जो सर के रहने का सामान कर सको

हर शौक  ही  जुनूँ   था ये    कैसी   बसर    हुई
अब दिल कहाँ जो दर्द को मेहमान   कर  सको


हम तो  हुसूल-ऐ-गम   में भी   सरशार   ही रहे
तुम ऐसी  जिंदगी   ना     मेरी   जान कर सको



ऐ दाई-ऐ-हयाते-ऐ-दवाम एक तुम ही  तो  हो
जो सारी मुश्किलें   मेरी   आसान   कर  सको

(अखतर किदवई )

deewan =collection of poems

husool-e-ghum= collecting sorrows;

sarshaar= Happy

daai -e-hayaat-e-dawaam= one who invites to eternal life (death)


8 comments:

  1. हमेशा की तरह आप की एक और बेहतरीन ग़ज़ल हमे पढने को मिली ,शुक्रिया सर,ये पक्तियां मुझे विशेष पसंद आई .....कर लो अपने दर्द को दूकान कर सको
    तुम मीर कब हो जम्मा जो दीवान कर सको


    कद शहर तो क्या घर में भी ऊँचा ना हो सका
    बस है जो सर के रहने का सामान कर सको

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  2. हम तो हुसूल-ऐ-गम में भी सरशार ही रहे
    तुम ऐसी जिंदगी ना मेरी जान कर सको

    बेहतरीन पंक्तियाँ।
    ----
    जो मेरा मन कहे पर आपका स्वागत है

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  3. कद शहर तो क्या घर में भी ऊँचा ना हो सका
    बस है जो सर के रहने का सामान कर सको

    हर शौक ही जुनूँ था ये कैसी बसर हुई
    अब दिल कहाँ जो दर्द को मेहमान कर सको

    ..bahut khoob!

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  4. बहुत खूब...

    हर शौक ही जुनूँ था ये कैसी बसर हुई
    अब दिल कहाँ जो दर्द को मेहमान कर सको

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  5. हर शौक ही जुनूँ था ये कैसी बसर हुई
    अब दिल कहाँ जो दर्द को मेहमान कर सको
    हम तो हुसूल-ऐ-गम में भी सरशार ही रहे
    तुम ऐसी जिंदगी ना मेरी जान कर सक

    vah bahut sundar gazal .... bhavnaon ko gazal me rekhankit kr hi diya hai ap ne ...bahut bahut badhai.

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  6. वाह , बहुत खूबसूरत गजल।

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  7. कद शहर तो क्या घर में भी ऊँचा ना हो सका
    बस है जो सर के रहने का सामान कर सको
    बहुत सुन्दर .....

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