Tuesday, 27 September 2011

इन गीली गीली राहों पर, मैं कभी-2 यूँ ही दूर तलक चला जाता हूँ
बीते वक्त के पन्नों को, खोलता हूँ, पढ़ता हूँ, मुस्कराता हूँ
जब तुम मेरे साथ इन राहों पर चली थी, तो हवाएँ, फिजायँ अलग
थी, भली थी.............
वो मेरे साथ तुम्हारा यूँ ही चलते जाना, हँसना,खिलखिलाना
रूठ जाना और फिर से मुस्कराना....
वो पेड़ों की डाली से अठखेलियाँ करना, कुछ कलियाँ चुनना
बालों में सजाना....
लगती हो सुंदर अगर मैं ये कह दूं तो हया की लाली का
गालों पर आना.....
वो सारे पल, इन राहों ने अपने दिल मे छुपा कर रखे हैं
सुकून और शांति के वो पल, कुछ नहीं, आलेख रखे हैं
मैं दूर तक जाकर उन पन्नों को पढ़ कर आता हूँ
आश्चर्य है! उन पन्नों की स्याही को मैं आज भी
गीली और ताज़ा पाता हूँ.......

1 comment:

  1. bahut si meethi meethi yaadoko taaza kar diya aapne, aapki is kavitake jariye. kash ki waqt bhi wahi tham gaya hota aur hum bhi unhi sunhari lamhoki aagoshme jeete, lekin aisa mumkin kaha?

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