Thursday 6 October 2011


दिवाली
दिवाली की पावन बेला एक सहेली सी लगती है!
दिए की लौ देखो तो अधखिली कलि सी लगती है!!
बल्बों की सुंदर लड़ियाँ दिवाली के गजरे जैसे!
और लटकी कंदीलें, उसके  माथे की बिंदियाँ लगती है!!
रंग बिरंगी रंगोली,  उसकी चुनर के फूल हो  जैसे!
छुटे जब फुलझड़िया, मुझको दिवाली हँसती लगती है!!

दिवाली की पावन बेला एक सहेली सी लगती है....
दिए की लौ देखो तो अधखिली कलि सी लगती है!!
लक्ष्मी पूजन जब होता तो, जैसे नमन करे दिवाली!
धृत क्रीडा होते  देखे तो उसकी आँखें नम  सी होती है!!
पीकर मदिरा कोई गिरे तो, चिंतित हो जाती दिवाली!
हाथ जले गर किसी बच्चे का, दिवाली रोती  लगती है!!
खील-पताशे और मिठाई, उपहार दिवाली के लगते है!
स्नेह  से सब मिल बैठे तो, दिवाली सजती लगती है!! 
दिवाली की पावन बेला एक सहेली सी लगती है....
दिए की लौ देखो तो अधखिली कलि सी लगती है!!
अवन्ती सिंह

2 comments:

  1. Muje bahut achhi lagi ye aapki ye rachna Diwalike sambandhme!Diwaliki paawan bela ek sahelisi lagti hai! yaad rakhunga ise agli diwali par.

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  2. bahut si pyaari aur alag tarh ki kavitaa hai avanti ji,DIWALI KI PAVN BELA EK SAHELI SI LAGTI HAI,DIYE KI......ADHKHILI KALi SI LAGTI HAI.....
    bahut sundar kalpna....

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