मेरी आँखों में पड़े हुए है संकीर्णता के जाले
जो मुझे देखने नहीं देते प्रेम की व्यापक परिभाषा
मुझे अभी ये ही लगता है के ,प्रेम स्त्री और पुरुष
के आपसी लगाव तक ही सीमित है,अभी ये ही है
प्रेम की परिभाषा मेरे लिए ........
अभी मैं नहीं सोच पाती के प्रेम तो सार्वभौमिक
सत्य है ,सृष्टि के कण कण में व्याप्त है प्रेम
प्रेम ही सृष्टि के सर्जन का कारण है और प्रेम की हर
पल खोज ही हमारे जीवन का उदेश्य है
जिसे हम अनजाने में नाम दे देते है सुख की खोज का
पर अभी मुझे नहीं पता है ये सब .........
अभी तो मुझे ये ही लगता है के किसी को पा जाने का
नाम ही प्रेम है ,अभी कहाँ पता है मुझे के किसी को
सुख और शान्ति देने के लिए खुद को मिटा देने ,अपने आप को किसी के
अस्तित्व में विलीन कर देना ही सही मायने में प्रेम होता है .........
अभी कहाँ पता है मुझे के जीव मात्र से ही प्रेम नहीं होता,प्रेम तो ईश्वर
से भी होता है ,और ईश्वर से प्रेम के बाद ही तो उस की निर्मित सृष्टि
के कण कण से ,हर जीव से सही अर्थ में प्रेम कर पाते है हम,कोई पराया नहीं
रहता ,सब अपने हो जाते है ,दुश्मन पर भी क्रोध नहीं करूणा भाव उमड़ता है
उस का भी हित हो ये ही प्रयत्न रहता है ......
काश मैं जान पाती इस सत्य को ,तो मैं अपनी आँखों पर पड़े संकीर्णता के
जाले को नोच देती अपने ही नाखुनो से ,और अपनी आँखों के नए उजाले से
देख पाती प्रेम की व्यापकता हो ,फिर प्रेम की परिधि बहुत छोटी नहीं रह जाती मेरे लिए.
काश मैं जान पाती, पर अभी मुझे नहीं पता ..................
जो मुझे देखने नहीं देते प्रेम की व्यापक परिभाषा
मुझे अभी ये ही लगता है के ,प्रेम स्त्री और पुरुष
के आपसी लगाव तक ही सीमित है,अभी ये ही है
प्रेम की परिभाषा मेरे लिए ........
अभी मैं नहीं सोच पाती के प्रेम तो सार्वभौमिक
सत्य है ,सृष्टि के कण कण में व्याप्त है प्रेम
प्रेम ही सृष्टि के सर्जन का कारण है और प्रेम की हर
पल खोज ही हमारे जीवन का उदेश्य है
जिसे हम अनजाने में नाम दे देते है सुख की खोज का
पर अभी मुझे नहीं पता है ये सब .........
अभी तो मुझे ये ही लगता है के किसी को पा जाने का
नाम ही प्रेम है ,अभी कहाँ पता है मुझे के किसी को
सुख और शान्ति देने के लिए खुद को मिटा देने ,अपने आप को किसी के
अस्तित्व में विलीन कर देना ही सही मायने में प्रेम होता है .........
अभी कहाँ पता है मुझे के जीव मात्र से ही प्रेम नहीं होता,प्रेम तो ईश्वर
से भी होता है ,और ईश्वर से प्रेम के बाद ही तो उस की निर्मित सृष्टि
के कण कण से ,हर जीव से सही अर्थ में प्रेम कर पाते है हम,कोई पराया नहीं
रहता ,सब अपने हो जाते है ,दुश्मन पर भी क्रोध नहीं करूणा भाव उमड़ता है
उस का भी हित हो ये ही प्रयत्न रहता है ......
काश मैं जान पाती इस सत्य को ,तो मैं अपनी आँखों पर पड़े संकीर्णता के
जाले को नोच देती अपने ही नाखुनो से ,और अपनी आँखों के नए उजाले से
देख पाती प्रेम की व्यापकता हो ,फिर प्रेम की परिधि बहुत छोटी नहीं रह जाती मेरे लिए.
काश मैं जान पाती, पर अभी मुझे नहीं पता ..................
Achchhi rachna! Badhaai!
ReplyDeletehar ek kaa
ReplyDeleteapnaa apnaa ahsaas
apna apna andaaz
koi kuchh bhee kahe
prem to bas prem
hotaa hai
बहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति........
ReplyDeleteबहुत भावमयी प्रस्तुति......
ReplyDeleteअभी कहाँ पता है मुझे के जीव मात्र से ही प्रेम नहीं होता,प्रेम तो ईश्वर
ReplyDeleteसे भी होता है ,और ईश्वर से प्रेम के बाद ही तो उस की निर्मित सृष्टि
के कण कण से ,हर जीव से सही अर्थ में प्रेम कर पाते है हम,कोई पराया नहीं
वाह! अनमोल भाव प्रस्तुत किये हैं आपने.
बहुत बहुत आभार जी.
prem ki puja karo,yaha sadhana hai
ReplyDeleteprem amritdhar hai,aaradhana hai
prem ka vistar,pawan karm tap hai
swarg mil jaye,prabal sambhawana ha
Bahut hi sundar rachana hai our prem ki sunder abhivyakti hai apki rachana me,badhaai ho avanti singhji
यह भाव बने रहे ....
ReplyDeleteशुभकामनायें !
प्रेम रस में भीगी हुई सुन्दर रचना है .. बहुत ही भावपूर्ण है . शब्द अच्छे बन पढ़े है ..
ReplyDeleteबधाई स्वीकार करे.
कृपया मेरी नयी कविता " कल,आज और कल " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/11/blog-post_30.html
मैंने अपना एक नया ब्लॉग शुरू किया है , जिसमे मैं अपनी लिखी हुई कहानियो को पोस्ट करूँगा : मेरी नयी कहानी “ मेन इन यूनिफार्म” को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा .लिंक है : http://storiesbyvijay.blogspot.com/2012/01/men-in-uniform.html
आभार
विजय
बहुत सुन्दर और सार्थक सोच...यही भाव सदैव साथ रहे ...
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावपूर्ण रचना...
ReplyDeleteसुन्दर और भावपूर्ण रचना.
ReplyDeletevikram7: हाय, टिप्पणी व्यथा बन गई ....