गौ रक्षा सिर्फ हिन्दुओं की जिम्मेदारी नहीं ये सभी भारतियों की जिम्मेदारी है ,गौ हमारी माँ होने के साथ ही हमारे पर्यावरण के लिए ,लोगों के स्वास्थ से लिए भी बहुत महत्व रखती है ,खेती में भी उस के गोबर का और मूत्र का बहुत ज्यादा महत्व है,क्या आप इस विषय से खुद को जुदा पाते है या जोड़ना चाहते है ??गौ सेवा  रक्षा मंच पर राजेंद्र जी की एक पोस्ट पढ़ी (
Saturday, 25 February 2012
Wednesday, 22 February 2012
कभी कोई कविता
कभी कोई कविता जन्म लेने को कितना अकुलाति है!
कभी कोई कविता, सोच की गलियों मे ही खो जाती है!!
कभी कोई कविता,विचारों की तेज धार संग बह आती है!
कभी कोई कविता जीवन का सार, सम्पुर्ण कह जाती है!!
कभी कोई चपला कविता, देखो तो कैसे इठलाती है!
कभी कोई मुस्काती कविता,मधुर फ़साने कह जाती है!!
कभी कोई विरहनी कविता, अश्क आँख मे दे जाती है!
कभी कोई प्रिया सी कविता, ह्रदय को झंकृत कर जाती है!!
कभी कोई अति वाचक कविता,जाने क्या क्या कह जाती है!
कोई शांत मौनी सी कविता, यूँ ही चुप से रह जाती है!!
कभी कोई घर-भेदी कविता, भेद सभी से कह जाती है!
कभी कोई अति ज्ञानी कविता, ज्ञान बघार कर रह जाती है!!
कभी कोई सोती सी कविता,कुछ कहते कहते सो जाती है!
चुगलखोर सी कविता कोई, चुगली कान मे पो जाती है!!
कभी कोई मेघा सी कविता, रिमझिम बूंदे बरसाती है!
ज्वालामुखी सी कविता कोई, लावे को फैला जाती है!!
कभी कोई मोटी सी कविता,सम्पुर्ण पृष्ठ ही खा जाती है!
और कोई नन्ही सी कविता कोने मे ही आ जाती है!!
कविताओं के रूप है कितने ये अब तक मालूम नहीं!
हर कविता नव जीवन लेकर, नई कहानी कह जाती है!!
(अवन्ती सिंह)
Saturday, 18 February 2012
पता नहीं
एक गीत लिखने का मन है 
ढूँढ़ रही हूँ कुछ नए शब्द
जो बिलकुल अनछुए हो
न कभी पढ़े ,ना कभी सुने हों
मन की असीम गहराई में जा कर
बहुत कोशिश की मोतियों से शब्द पाने की
पर नाकाम रही ,मन की असीम गहराई में
उतरने के बाद जो संगीत सुना ,वो बिलकुल नया
और अनसुना था,पर उन शब्दों को कागज़ पर किस तरह
उकेरा जायेगा ,ये बोध अभी नहीं हुआ है ,जाने कब सीख
पाऊँगी उन शब्दों को लिख पाना ,और कब बनेगा नए शब्दों
से सजा नया गीत,कुछ दिनों में,कुछ साल में या किसी नए जन्म
तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी पता नहीं ................
ढूँढ़ रही हूँ कुछ नए शब्द
जो बिलकुल अनछुए हो
न कभी पढ़े ,ना कभी सुने हों
मन की असीम गहराई में जा कर
बहुत कोशिश की मोतियों से शब्द पाने की
पर नाकाम रही ,मन की असीम गहराई में
उतरने के बाद जो संगीत सुना ,वो बिलकुल नया
और अनसुना था,पर उन शब्दों को कागज़ पर किस तरह
उकेरा जायेगा ,ये बोध अभी नहीं हुआ है ,जाने कब सीख
पाऊँगी उन शब्दों को लिख पाना ,और कब बनेगा नए शब्दों
से सजा नया गीत,कुछ दिनों में,कुछ साल में या किसी नए जन्म
तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी पता नहीं ................
(अवन्ती सिंह)
Thursday, 16 February 2012
रिश्ता

आंसूओसे यह अजीबसा रिश्ता कैसा -
मेरी हर आह्से बेसाख्ता जुड़े रहते हैं
ज़रा सी टीस दरीचोंसे झांकती है जब
मरहम बनकर उसे ढकने को निकल पड़ते हैं...
जब कभी चाहूं मैं रोकना पीना उनको-
हर हरी चोट को नासूर बना देते हैं -
जमकर बर्फ हो गए उन लम्होंको -
अपनी बेबाक तपिशसे जिला देते हैं ...
फिर तड़प का वही सिलसिला रवां करके
किसी मासूम की आँखों से ताकते मुझको-
मानो मेरा दर्द, मेरी तक्लीफ देखकर वह -
कुछ शर्मसार से निगाहोंको झुका लेते हैं.
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सरस दरबारी
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merehissekidhoop-saras.blogspo t.com
Tuesday, 14 February 2012
जिंदगी
आज फिर तेरे एक शुष्क पहलु को  देखा  जिंदगी! 
अश्रु जल आँखों में  था,  बहने  से  रोका  जिंदगी !!
क्यूँ हर इन्सान तुझे अच्छा लगे है रोता,  जिंदगी ! 
देती क्यूँ हर इंसा की उम्मीद को तू धोखा ,जिंदगी!!
क्यों तू इतनी कठोर है ,पत्थर  सी  है  तू   जिंदगी! 
क्यों कोई सनेह अंकुर तुझ में ना फुटा    जिंदगी!! 
हर पल   हर  छन  दर्द  तू  सबको ही देती जा रही! 
काश के   तेरा   कोई   अपना  भी  रोता,  जिंदगी!! 
बन  कर  कराल  कालिका, तू  मौत का नृत्य करे! 
कोई  शिव  आकर , काश तुझे रोक लेता जिंदगी !!  
Sunday, 12 February 2012
मन चंचल है
मन चंचल है ,  चपल है,   चलायमान है,   अधीर है 
जीत जाता अधिकाँश  युद्ध ,  ये   ऐसा   रणवीर  है 
रोज नया कुछ पाने की इच्छाए इसकी बढती जाती है 
बुद्धि, इसकी  देख हरकतें ,कसमसाती है  चिल्लाती है
पर ये है स्वार्थ का पुतला,इस को किसी की पीर नहीं है 
जीत इसे काबू में  कर ले ,  कोई भी  ऐसा  वीर  नहीं  है 
बड़े बड़े योगी  जनों   को ये ऊँगली   पर  नाच नचाता है 
तोड़  के   लोगों   के  व्रत -संकल्प  ये अट्टहास लगता है 
जो कहे के मन को जीत लिया, ये उसी  को  मुंह की खिलाता है 
महाविजय्यी ,महा योद्धाओं को ये चारों खाने चित कर जाता है 
इसे पराजित  कर   लेने   का   कभी   भी   करो   गुमान   नहीं 
ये काम असम्भव है बिलकुल ,   हम   इन्सां है,  भगवान नहीं 
जीत नहीं सकते गर इस को, तो परिवर्तित कर दें इसकी  राहें 
इच्छाएं मारे से मरे ना तो आओ बदल दें हम   मन  की   चाहें 
हे मन तू   ईश्वर   में खो जा,    तू    उस   का   रूप निहारा कर 
तू उस के आगे    नाचा  कर,    और  हर  दम  उसे   पुकारा  कर 
कर के पुण्य कार्य,सद्कार्य तू ,   दुखियों   के   दुःख   निवारा   कर 
सब व्यसन त्याग दे,आज अभी ,बस प्रभु प्रेम का नशा गवांरा कर.
पुरानी कविता
=========  
(अवन्ती सिंह) 
Friday, 10 February 2012
वो कभी
वो कभी अपना ,कभी अजनबी सा लगा 
लगा ख्वाब कभी,तो कभी यकीं सा लगा
उस को  देखते  ही  मर  मिटे  थे  हम तो  
हद है के वो  फिर  भी  जिंदगी  सा  लगा
कभी लगा के सागर हो वो गम्भीरता का 
और   कभी    सिर्फ  दिल्लगी  सा   लगा  
कभी    तो     सांस    सांस    जीया   उसे 
और    कभी    बीती  जिंदगी   सा   लगा  
उस   के  साए  में  सो   गए    हम  कभी 
और   कभी  धुप  वो  तीखी   सा    लगा 
कभी पाकर लगा उसे, पा ली कायनात सारी
और कभी वो हाथ से रेत फिसलती सा लगा
उस की आँखों में उतर कर गुम हो गए हम 
कभी वो झील सा  तो  कभी  नदी  सा लगा
(अवन्ती सिंह) 
Wednesday, 8 February 2012
प्रेम जब अनंत हो गया,रोम रोम संत हो गया ...
                                                         (  माँ आनन्दमयी )
माँ आनन्दमयी का व्यक्तित्व मुझे हमेशा आकर्षित करता रहा ,मेरा मानना है उन की तस्वीर को कोई कुछ देर निहार ले तो आनन्द से भर जाता है ,सच्चे संत की ये ही पहचान होती है ,उन को देखने भर से शान्ति मिल जाती है !
माँ का जन्म, त्रिपूरा के खेडा नाम के गाँव में एक बंगाली परिवार में ३० अप्रैल १८९६ को हुआ था ,१२ वर्ष की आयु में उनका विवाह भोलानाथ जी के साथ हुआ,बचपन से ही कृष्ण की आराधना में लीन रहने वाली माँ आनन्दमयी की भक्ति ,उम्र के साथ -२ परवान चढने लगी ,कृष्ण प्रेम में आकंठ डूब जाने के बाद २६ वर्ष की उम्र में उन्होंने प्रवचन के माध्यम से ये प्रेम रस जन सामान्य में वितरित करना शुरू किया , उन का शरीर
१९८३ में पञ्च तत्व में विलीन हो गया पर माँ का प्रेम आज भी महसूस किया जा सकता है .
Tuesday, 7 February 2012
 एक अंतराल के बाद देखा...
मांग के करीब सफेदी उभर आई है
आँखें गहरा गयी हैं,
दिखाई भी कम देने लगा है...
कल अचानक हाथ कापें ..
दाल का दोना बिखर गया-
थोड़ी दूर चली ,
और पैर थक गए .
अब तो तुम भी देर से आने लगे हो..
देहलीज़ से पुकारना ,अक्सर भूल जाते हो
याद है पहले हम हर रात पान दबाये,
घंटों घूमते रहते...
..अब तुम यूहीं टाल जाते हो...
कुछ चटख उठता है-
आवाज़ नहीं होती ...
पर कुछ साबुत नहीं रह जाता.....
और यह कमजोरी,
यह गड्ढे,
यह अवशेष
जब सतह पर उभरे ...
एक चटखन उस शीशे में बिंध गयी ..
..और तुम उस शीशे को...
.. फिर कभी न देख सके!
 
मांग के करीब सफेदी उभर आई है
आँखें गहरा गयी हैं,
दिखाई भी कम देने लगा है...
कल अचानक हाथ कापें ..
दाल का दोना बिखर गया-
थोड़ी दूर चली ,
और पैर थक गए .
अब तो तुम भी देर से आने लगे हो..
देहलीज़ से पुकारना ,अक्सर भूल जाते हो
याद है पहले हम हर रात पान दबाये,
घंटों घूमते रहते...
..अब तुम यूहीं टाल जाते हो...
कुछ चटख उठता है-
आवाज़ नहीं होती ...
पर कुछ साबुत नहीं रह जाता.....
और यह कमजोरी,
यह गड्ढे,
यह अवशेष
जब सतह पर उभरे ...
एक चटखन उस शीशे में बिंध गयी ..
..और तुम उस शीशे को...
.. फिर कभी न देख सके!
Sunday, 5 February 2012
क्या कहिये ऐसी हालत में कौन समझने वाला है 
सब की आँखों  पे  पर्दा है हर एक जुबां पर ताला है 
किस के आगे सर पटकें और चिल्लाये किस के आगे 
एक हाथ में छुपा है खंज़र ,   एक   से  जपते माला है 
करनी और कथनी में अंतर ,आसमाँ और ज़मीं का है 
कहते थे क्या क्या कर देगें,पर बस बातों   में  टाला है 
के लिए रखी गयी ,मैं ने कोशिश की पर क्यूकि मुझे ग़ज़ल के नियम पता नहीं
है के कैसे लिखते है ,तो ये उस मुशायरे के नाकाबिल साबित हुई,यहाँ में इसे ग़ज़ल
के रूप में नहीं सिर्फ अपनी एक रचना के रूप में रख रही हूँ )
(अवन्ती सिंह)
Friday, 3 February 2012
अबके आना तो चराग़ों की हंसी ले आना 
 लान की घास से थोड़ी सी नमी ले आना ----
होंट शीरीं के बहुत खुश्क हैं मुरझाए भी हैं
तुम पहाड़ों से कोई शोख नदी ले आना
---
वक़्त पर मिल सके जो चीज़ वही काम की है
जो भी हो ज़हर या अक्सीर अभी ले आना
---
मुद्दतें गुजरी हैं शबखाने में साग़र में खनके
किसी तौबा से मेरी प्यास कोई ले आना
---
आज वोह आएँगे खुश दिखने की सूरत कर लें
शब को बाज़ार से कुछ खंदालबी ले आना
खंदा लबी = मुस्कराहट
   ================
                   
       ( अखतर किदवई ) 
Wednesday, 1 February 2012
नादान फूल
वो मुझे कह रहे है  बार-२,  के  तुम  चले   गए हो
मैं उन्हें झिड़क देती हूँ पागल और नादान कह कर
अगर   तुम  चले   गए  होते   मुझ   से  दूर   कहीं 
तो    मेरी   पलकें     झपकना    ना   भूल    जाती
बंद ना  हो  गयी  होती  मेरी  आँखों  की  हलचल?
 
मेरे होठों  की  गुलाबी  रंगत  पर  गम  की स्याही
ने   कब्ज़ा  ना   कर  लिया   होता     अब   तक ?
दिल   धडकने   से   मना   ना   कर   चुका होता 
साँसें      थम     के   खड़ी   ना   हो   गयी   होती 
तुम्हारे   जाने   की    गवाही    देने    के   लिए ?
ऐसा     तो   कुछ      भी     नहीं    हुआ    है ना  ?
फिर कैसे सच मान लूँ मैं इन नादान फूलों की बात 
मेरा  होना  ही सुबूत है  तुम्हारे   ना   जाने  का ......
(अवन्ती सिंह )
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