Saturday, 1 October 2011

आशा की किरण
रात गयी सो बात गयी, देखो, एक नई सुबह हुई!
आशा की नई किरणे, बाहें फैलाये   बुलाये अपने आगोश में!!
 आज मन में जागी है नई उमंगे, और नई उम्मीद से सजी है जिंदगी!
 आज हूँ मैं आज़ाद पंछी की तरह, तैयार    ऊँची उड़ाने भरने के लिए!!
होंसले  है   बुलंद,   और   पक्के    है     इरादे     मन       में      मेरे!
अब न कोई रोक पायेगा मुझे, और ना  मैं कभी पीछे हटूंगी !!
कहने को हूँ मैं अबला नारी, लेकिन मुझ में भी है साहस  भारी !
अब ना देखूं पीछे मुड़ कर, मुझे तो बस आगे   बढना    है!!
और बढते ही जाना है, जब तक ना पा लूँ मैं मंजिल अपनी!
रात गयी सो बात गयी ...............
(एक अनजान शायर )
 

Tuesday, 27 September 2011

इन गीली गीली राहों पर, मैं कभी-2 यूँ ही दूर तलक चला जाता हूँ
बीते वक्त के पन्नों को, खोलता हूँ, पढ़ता हूँ, मुस्कराता हूँ
जब तुम मेरे साथ इन राहों पर चली थी, तो हवाएँ, फिजायँ अलग
थी, भली थी.............
वो मेरे साथ तुम्हारा यूँ ही चलते जाना, हँसना,खिलखिलाना
रूठ जाना और फिर से मुस्कराना....
वो पेड़ों की डाली से अठखेलियाँ करना, कुछ कलियाँ चुनना
बालों में सजाना....
लगती हो सुंदर अगर मैं ये कह दूं तो हया की लाली का
गालों पर आना.....
वो सारे पल, इन राहों ने अपने दिल मे छुपा कर रखे हैं
सुकून और शांति के वो पल, कुछ नहीं, आलेख रखे हैं
मैं दूर तक जाकर उन पन्नों को पढ़ कर आता हूँ
आश्चर्य है! उन पन्नों की स्याही को मैं आज भी
गीली और ताज़ा पाता हूँ.......
फेली शितिज पर गहरी लाली सूर्य प्रकाश अब होने को है
चला अंधेरा बाँध के गठरी सूर्य राज्य अब होने को है
कुछ ही देर मे सूर्य अपनी रशमीयों की चादर फेलाएगा
सारा जाग ज्ञानमय प्रकाशमय हो जाएगा
पक्षी दाना लाएगे,कोयल अब गीत सुनाएगी
आलसय दूर भगेगा प्राणों मे उर्ज़ा आएगी
इस ज्ञान प्रकाश का मिल जुल कर ,आओ लाभ उठाए हम
घनघोर रात्रि आने से पहले,आतमप्रकाशित हो जाए हम

Monday, 26 September 2011

मन चंचल है अधैर्य है चलायमान है अधीर है !
जीत जाता अधिकाँश युद्ध, ये ऐसा रणवीर है!!
रोज नया कुछ पाने की इच्छाए इसकी बदती जाती है!
बुध्धि इसकी देख हरकते,कसमसाती है,चिल्लाती है !!
पर ये है स्वार्थ का पुतला, इसको किसी की पीर नहीं है !
जीत इसे काबू में रख ले , कोई ऐसा वीर नहीं है!!
बड़े बड़े योगी जन को ये ऊँगली पर नाच नचाता है!
तोड़ के लोगों के संकल्प/ व्रत ये अट्टहास लगाता है!!
जो कहे के मन को जीत लिया, ये उस को मुहं की खिलाता है!
महा विजय्यी, महा योद्धाओं को, चारों खाने चित कर जाता है!!
मनु (मन) से सृष्टि शुरू हुई और मनुष्य इस धरा पर आया !
कभी कोई स्वनिर्माता को भी है पराजित कर पाया?
इसे पराजित कर लेने का कभी भी करो गुमान नहीं !
ये कार्य बड़ा ही दुष्कर है और हम इन्सां है,भगवान् नहीं!!
जीत नहीं सकते हम इसको पर परिवर्तित कर दें हम इस की राहें!
इच्छायें मारे से मरे ना, तो आओ बदल दे हम अपनी चाहें !!
हे! मन तो ईश्वर में खो जा, तू उसका रूप निहारा कर!
तू उस के आगे नाचा कर और हर दम उसे पुकारा कर!!
करके पुण्य कार्य/ सद्कार्य तू ,दुखियों के दुःख निवारा कर!
सब व्यसन त्याग दे आज/अभी,बस प्रभु प्रेम का नशा गवारां कर!!

Sunday, 25 September 2011

हे! प्रियतम तुम कब आओगे?
बाट निहारत उम्र गुजारी
तुम कब आवाज़ लगाओगे
हे! प्रियतम तुम कब आओगे
पलक बिछाए दीपजलाए  खड़ी हूँ
कब से द्वारे पर,बरसों बीत गये साजन
तुम कब आवाज़ लगाओगे?
हे! प्रियतम.........
उम्मीदे सब टूट चली है,विरहनी विरह मे
डूब चली है,कब गीत मिलन  के गाओगे?
हे! प्रियतम.........
शृंगार मुझे भाते नहीं अब, त्योहार खुशी
लाते नहीं अब ,कब जीवन को उत्सव
बनाओगे,हे! प्रियतम................


 
कल आधी रात के बाद
कल आधी रात के बाद एक कविता ने मुझे झन्झोर कर जगा दिया
पहले तुम मुझे लिख तो तब ही तुम्हे सोने दूँगी
ये कह कर मुझे डरा दिया ...................
समझाया मैं ने उसे ,तुम क्यूँ हो रही  हो बेकरार
ज़रा तो करो सुबह होने का इंतजार
तुम कयूं हो रही हो इतनी बेकरार?
उठते ही सबसे पहले मैं करूँगी तुम्हारा शृंगार
सज़ा-धजा,नव वस्त्र पहनाकर, दूँगी तुम्हे काग़ज़ पे उतार
हंस कर बोली कविता,पागल नहीं हूँ,मुझे है सब पता
२ गीत और १ ग़ज़ल मुझ से आगे वाली पंक्ति मे खड़े है
उतरेगे काग़ज़ पर मुझ से पहले,इस ज़िद्द पर अड़े है
अगर मैं सो गई,या मश्तिश्क की गलियों मे कहीं खो गई
मुझे आने मे देर हुई ज़रा भी तो बाज़ी मार ले जाएगे वो ज़िद्दी
नहीं पता मुझे कुछ भी,अभी करो मेरा शृंगार ...............
पहनाओ मोतियन के हार,सज़ा-धज़ा कर,दो मुझे काग़ज़ पे उतार
फिर तुम भी  सो जाना  पल दो चार....................
आख़िर मैं गई कविता से हार,शीघ्र किया उसका शृंगार
किया नया  कलेवर तैयार,दिया उसे काग़ज़ पे उतार
काश! मेरी नींद ना करने लगे अब कोई ज़िद्द बेकार
वो आ ही जाए पल दो चार.