Wednesday, 7 December 2011

नव गीत का निर्माण

तुम   यूँ     ही   मुस्कराते     रहो     मेरे     सामने    बैठ कर 
मैं   प्रीत    से   भरे     नव    गीत      का       निर्माण      करूँ  

तुम  अपने   मन   की    मधुरता    बिखरते   रहो       यूँ    ही
मैं   उस    मधुरता    से     अपने     गीतों    में      प्रेम     भरूं

अपनी आँखों  की  चमक   मुझ      तक    ऐसे   ही   पहुचने  दो
समेट कर उसे ,उस से मैं शब्दों   के  लिए    कुछ      गहने   गढ़ूं   


तुम्हारे  प्रेम   की   महक,  जो घेर रही  है  मुझे   चारों   और  से 
इस से   ही  तो   महकेगी   मेरी   ये बिना   सुगंध   की   कविता

अभी मत उठो यहाँ  से, रुको  क्या   तुम     अब   तक   नहीं समझे , 
तुम्हारे होने से ही तो बह रही है मुझ में से छन्द और बंधों की सरिता  


लो तुम हो जाने को  बेकरार  इतना ,तो   मैं   कविता   को   पूर्ण   करती   हूँ
तुम्हारे होने से इसे लिख पाई हूँ सो इस का पूरा श्रेय तुम्हे समर्पित करती हूँ 










खुदा ने जब तुम्हे बनाया होगा ...

चाँद   से  नूर    थोडा,  खुदा   ने     उठाया   होगा 
जब तुम्हारे जिस्म की   रंगत  को  बनाया होगा  

टिमटिमाते दो तारे  रख दिए  आँखों में तुम्हारी 
और काली घटाओं से, बालों को   बनाया   होगा 


होठ  ऐसे  के,  लगे   नाजुक  पंखुड़ी कमल  की हो 
कमल की पखुडिया वो    कैसे   तराश  पाया होगा 


इतने  तीखे  नयन -नक्श  बनाये   होगे   जिससे 
उस  औजार को वो जाने  कहाँ    से    लाया   होगा 


जिस्म   ऐसा,  जैसे   नदी  गिरती हो उठ जाती हो 
नदी   को   सांचे   में,  वो   कैसे ढाल   पाया   होगा


चाँद   से     नूर    थोडा,    खुदा   ने   उठाया   होगा 

जब तुम्हारे जिस्म की रंगत   को   बनाया   होगा 



( चित्र साभार -गूगल इमैज )
















Tuesday, 6 December 2011

करके  अहसान  किसी  पर,  अगर  जता  भी   दिया
तो फिर वो अहसान  कैसा, किया, किया,  ना  किया

रहो   खामोश,   अगर        दर्द   किसी    का     बांटो 
करोगे चर्चे तो फिर गम हल्का,किया,किया ना किया 


तजुर्बे,    जिन्दगी   की   राह   में   गर  काम  ना  आये 
तो फिर वो खाक तजुर्बा   था,किया,  किया,   ना किया

तुम्हारी    हसरतों    पर  गर   पकड रही   ना तुम्हारी
जिया तो जीवन तुम ने,मगर जिया, जिया,  ना जिया


किसी   की   आँख   के आंसू ,  अगर  तुम पौंछ ना पाए 
सजदे   में  सर   खुदा   के ,   दिया,   दिया,    ना   दिया 


सफाई    दिल   की कालिख की अगर तुम कर नहीं पाए
स्नान  गंगा      में   जाकर,  किया,   किया,   ना   किया 


तुम्हारे    घर   में   ही   गर  तुम  पे  उठ  रही है उंगलियाँ
सलाम  दुनिया   ने   तुम   को,  किया,   किया,  ना किया 


पुकारे  जब   भी   धरती   माँ,  तो   उठ  चलना   हुंकार  के
कहेगी  वरना  ये धरा,  जन्म इस ने लिया,लिया,ना लिया

Monday, 5 December 2011

अखतर जी की ४ कविताओं की अनोखी श्रृंखला

                    
    असतो  मा

  निर्बंध कुछ भी नहीं है शायद.
एक व्याकरण है
तुम्हारी भावनाओं में भी !
कभी कभी तो,
कारण-कार्य सम्बन्ध से अधिक शक्तिशाली  लगता है
आवश्यकता और आविष्कार का सीकरण,
हमारे संबंधों में भी.
और फिर,
दर्द भी तो नहीं होता है
कभी
खाल के नीचे
हम दोनों में से किसी को.
आओ, हम भी
अपनी खालें बदलना सीख लें.
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                                       मृत्योर्मा

छोड़ो भी,
अब तो वह बात पुरानी है.
हाँ था,
वह भी एक समय था अपने जीवन में .
तब मैं मैं था,
तब तुम तूम थे .
और हम दोनों,
एक अनूठे 'हम' के भाग बने रहते थे.
लगता था बस यह जीवन है,
लगता था बस स्वर्ग यही है.
लेकिन छोड़ो
 यह बातें तो
गुज़रे बीते उस कल की हैं
जिसका परमानेंट एड्रेस
कभी किसी के हाथ न आया.
आज तो मैं भी
उस 'मैं' से बिलकुल ही अलग कोई सा मैं हूँ,
जिसके जाने कितने क़िस्से,
कितने   'हम' का भाग बने बिखरे से पड़े हैं.
और तुम भी तो,
जाने कौन सा 'मैं' बन कर अब
जाने किस या कितने 'हम' में जुड़ से गए हो.
छोड़ो अब वोह पुरानी बातें.
अब तो वोह कल बीत चुका है.
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                                                जाड्यो मा
मैं क्या जानूं उपवन में,
कलियों के चटखने की भाषा को,
दूर पहाड़ों के झरनों की गति जैसा संगीत कभी
मेरे कानों में कब घोल सकी
 मादक मुस्कान किसी की.
समीकरण मधुभरे तुम्हारे नयनों की चंचल चितवन का,
घर की अंगनाई में उतरती,
पौषप्रात की धूप की गर्म उजियारी से क्या है,
मैं क्या जानूं.
मेरे घर के गंदे से गुलदान में ठूंसे
फूल प्लास्टिक के,
खा रहे धुल न जाने कब से .
मेरे घर में कभी कभी ही तो नल में पानी आता है.
मेरे कमरे में एक अंधा बल्ब जला करता है दिन भर.
(दिन भर तो क्या,
दिन भर में जब भी बिजली आती है)
मेरे घर में तो गर्मी होती है,
बस चूल्हे से या ग़ुस्से से.
मैं न समझ पाऊँगा यह उपमाएं .
इस भाषा को सीख सकूं
इतना मेरा सामर्थ्य कहाँ  है.
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                      तमसो  मा

अन्धकार,
घोर गहन और निस्सीम,
क्रूर भयानक अन्धकार.
अट्टहास में डूबी हुई है जिसकी नीरवता,
अन्तास्राल में खो सा गया है जिसका हर छोर.
सब कहते हैं ,
मई ही हूँ यह अन्धकार -
यही है मेरा अस्तित्व,
मेरी पहचान,
मेरी परिभाषा.
पर,
लोक वाणी के देवत्व पर
उलाहने  की रोली लगा   की
इस तमसागर की कुंठित गहराइयों में
किसी निश्छल निष्पाप श्वेतात्मा की तलाश में मग्न
तुम्हारा थका थका सा अजेय विश्वास
मुझे आस्तिक बना देता है.

         अखतर किदवाई

Saturday, 3 December 2011

हम को खूब आता है

  गम  पी    कर    मुस्काते    जाना,  हम    को      खूब        आता  है
आग    हथेली         पर   सुलगाना,    हम     को    खूब    आता      है


दिल  में    घाव  छुपे   है   उतने,        जितने    तारे       आसमान      में
और्रों के   घाव  भर     देना,    खुशियाँ  बिखराना हम  को   खूब आता है


आह    उठे   जब    भी     दिल  में,      हम     हंस  कर    उसे   छुपा  जाते  
अरे ये   तो  ख़ुशी  के  आंसू   है,  ये  बहाना,   हम   को      खूब   आता   है


गम     और      तनहाइयाँ        ही   तो       अपने     सच्चे     साथी   है
और      साथियों    का  साथ    निभाना,   हम   को   खूब    आता      है  


ईश्वर   ने    जो   हमे    दिया   वो    सिर्फ   हमारा    ही   तो    नहीं   है 
मिल   बाँट   कर    सब   संग    खाना ,  हम    को    खूब      आता    है 

 

Thursday, 1 December 2011

बातें करतें है

वो जब मुझ को ना देखें तब  भी  , नजर क्यूँ   बार   बार   झुकती है ?
ह्या की लाली आके गालों  पर ,उनके    तकनें    की   राह  तकती  है

दिल में तो लाखों बातें चलती है ,जुबां तक आ  के फिर  क्यूँ रूकती है
धडकने तेज होती जाती है ,दिल     में   एक पीर   सी   भी   उठती  है

होठ थरथराते है, चुप ही  रहतें है ,उन के आगे हम 'बुत' ही रहते है
साँसें  चलना भी भूल जाती है ,नज़रें  धरती में   गड सी   जाती   है

मैं उन की खामोशियों को सुनती हूँ,वो मेरी खामोशियों को   सुनते है
रात भर नींद अब आती ही नहीं, दिन भर अब ख्वाब ,ख्वाब बुनते है

बात गर हम शुरू कर भी दें तो , दुनिया, जहाँ   की  बातें    करते  है
कौन कैसा है ,वो तो वैसा है, जाने कहाँ   कहाँ   की   बातें    करते है

अपनी बातों की बात छोड़ कर हम , धरती आसमाँ की बातें करते है
जो जरूरी है वो तो रह ही जाता है ,और हम यहाँ वहां की बातें करते है

अब जो मिलना हुआ तो कह देगें ,आओ   अब   अपनी  बातें   करते है
कैसे कटते  है दिन तुम्हारे बिन,उन , सुबह-शामों  की  बाते   करते  है......
 







Wednesday, 30 November 2011

एक वोह ज़िन्दगी से प्यारा जो

एक वोह ज़िन्दगी से प्यारा जो
एक  मैं  ज़िन्दगी  से   हारा   जो.

तुम हो जो ख्वाब ख्वाब जीते हो
मैं तो वोह, सारे ख्वाब हारा जो.

ले   गया  लुट कर     मेरा   सूरज
नाकसो कस  का था सहारा जो.

वोह भी अब रौशनी से डरता है
था कभी सुब्ह का सितारा  जो.

आज भी उसके आसरे हैं आप
आज भी    बेकसों    बेचारा जो.

मैं न कहता था वोह किसी का नहीं
कभी    मेरा   कभी   तुम्हारा   जो.

(नाकसो  कस = each and every body)

   --------- akhtar किदवाई