Tuesday, 17 January 2012

जिंदगी आ तुझे शब्दों में आज ढाला जाये

जिंदगी आ तुझे शब्दों   में   आज   ढाला  जाये 
दिल की हसरतों को सभी, आज निकला जाये 


आसूं पौंछ  दिए  जाएँ   हर  नम आँख से और 
हर एक भूखे के पेट तक आज  निवाला  जाये 

दिल और जिस्म के हर ज़ख्म पर लगे मरहम आज 
दुःख और दर्द को दे दिया आज   देश निकला जाये 

दी जाये एक मुस्कान ,तोहफे में किसी मायूस को 
बन के   हमदर्द,  किसी   बेबस को सम्भाला जाये 

कभी ना देखी हो खुशियों की रौशनी जिस ने ,उस के लिए 
सूरज  की   किरणों से  आज लिया   छीन,  उजाला  जाये 

 आओ खोलें आज   मिल कर ,  हम सब   मधुशाला  स्नेह की 
जहाँ से हर एक प्यासे के होठो तक, पंहुचा दिया एक प्याला जाये 
(अवन्ती सिंह)

Sunday, 15 January 2012

तमाम उम्र ढूंढे उसके कदमो के निशां,दश्त -ओ-सहरा में
पर वक्त की तेज  आंधी ने तो  वो सब मिटा दिए थे ......

मर ही जाते हम,मगर बड़ा हौसला दिया उन्होंने
तेरे दिए कुछ फूल जो किताबों में छुपा दिए थे .........


(दश्त   -ओ-सहरा= मैदान और मरुस्थल )


         (अवन्ती सिंह )

Friday, 13 January 2012

मेरे हरीफ़ों ने कोशिश तो लाख की मगर 
 मैं एक दीया था खुदा का जलाया हुआ 

कितने उठाये तूफ़ान ,पर मेरी लौ भी ना हिली 
मुझ में था नूर  किसी  और  का  समाया  हुआ 

हरीफ़ों =विरोधियों 
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(अवन्ती सिंह) 
शाम को आज अलाव जला कर , सब इर्दगिर्द बैठ जायेगे 
रेवड़ियां,मूंगफली और मक्की के फुल्ले,बांटेगे और खायेगे 


मकर संक्रांति का ये पर्व  मन में नव उत्साह भर जाता है 
कोई सजाये रंगोली  से  घर   ,तो  कोई  पतंग   उडाता  है

उत्तर भारत में इस पर्व को कुछ इस   अंदाज  से  मनाते है 
बहन बेटियों के घर ,खिचड़ी,पकवान और नव वस्त्र पहुचाते है 

करके पवित्र नदियों में स्नान ,सूर्य के आगे नत मस्तक हो जाते  है 
कहीं -2 ,घर के बुजुर्गों को नव वस्त्र के दे उपहार आदर सम्मान जताते है 


रात को बैठ अलाव की आग  के आगे , सब  संग  हँसते  बतियाते  है
आपस के मन मुटाव को अग्नि की भेट  चढाते ,  खुशियाँ  मनाते  है  

 

Wednesday, 11 January 2012

सब ने कितना सराहा मुझे....

तुम्हारे सूखे,प्यास से भरे  हुए होंठ ,मैं देख नहीं पाती हूँ 
मैं पी जो रही हूँ जिंदगी के जाम भर भर के .........
तुम्हारे पेट की भूख का अहसास भी नहीं हो पाता मुझ को   
मेरे फ्रिज में भरा रहता है सामान ,मेरी शाही भूख को मिटने के लिए 

       तुम्हारे जिस्म की हड्डियां कैसे कांप जाती होगी तेज़ ठंड से ये मैं क्या जानू 
        सर्दियां मुझे तो एक उत्सव सी प्रतीत होती है ,महंगे और गर्म कपडे खरीदने
        और रोजाना उन्हें बदल बदल कर पहनने का उत्सव .............

हाँ कभी कभी खुद को अच्छा इंसान साबित करने की होड़ में ,मैं भी आती हूँ तुम्हारी 
गन्दी बस्ती में.    कुछ   पुराने   कपडे,  कुछ पैसे और   कुछ   ब्रेड   के   पैकेट   लेकर 
वो सामान तुम्हारे लोगों में बांटे हुए मैं फोटो खिचवाना कभी नहीं भूलती हूँ ..........
आखिर वो फोटों ही तो प्रमाणपत्र होते है ,मेरे सवेदनशील होना का .................


        और फिर , पार्टीस में  उन कपड़ों और ब्रेड के पैकेटों की संख्या से भी अधिक बार, मैं  दिखाती हूँ 
        वो फोटो ,जिन में मैं करुणा की देवी नजर आती हूँ  , मन ही मन खुद को खूब  सराहती हूँ ......
        रात को अपने नर्म मुलायम बिस्तर में लेटते हुए मैं गहरी   साँसें लेते हुए सोचती हूँ,इन गरीब लोगों 
      की   गरीबी का अहसास भले ही मुझे ना हो ,नहीं पता ये कितनी तकलीफ में जिंदगी गुज़ार रहे है

      पर हम भी रहम दिल लोग है ,सवेद्नाएं है हमारे पास भी ...................
     आज इंसान होने का फर्ज़ तो पूरा किया है मैं ने,सब ने कितना सराहा मुझे.....
       

Sunday, 8 January 2012

अभी मुझे नहीं पता

मेरी आँखों में पड़े हुए है संकीर्णता  के जाले
जो मुझे देखने नहीं देते प्रेम की व्यापक परिभाषा 
मुझे अभी ये ही लगता है के ,प्रेम स्त्री और पुरुष 
के आपसी लगाव तक ही सीमित है,अभी ये ही है 
प्रेम की परिभाषा मेरे लिए ........
अभी मैं नहीं सोच पाती के प्रेम तो सार्वभौमिक 
सत्य है ,सृष्टि के कण कण में व्याप्त है प्रेम 
प्रेम ही सृष्टि के सर्जन का कारण है और प्रेम की हर
पल खोज ही हमारे जीवन का उदेश्य है 
जिसे हम अनजाने में नाम दे देते है सुख की खोज का 
 पर अभी मुझे नहीं पता है ये सब .........
अभी तो मुझे ये ही लगता है के किसी को पा जाने का 
नाम ही प्रेम है ,अभी कहाँ पता है मुझे के किसी  को 
सुख और शान्ति देने के लिए खुद को मिटा देने ,अपने आप को किसी के 
अस्तित्व में विलीन कर देना ही सही मायने में प्रेम होता है .........
अभी कहाँ पता है मुझे के जीव मात्र से ही प्रेम नहीं होता,प्रेम तो ईश्वर  
से भी होता है ,और ईश्वर से प्रेम के बाद ही तो उस की निर्मित सृष्टि 
के कण कण से ,हर जीव से सही अर्थ में प्रेम कर पाते है हम,कोई पराया नहीं 
रहता ,सब अपने हो जाते है ,दुश्मन पर भी क्रोध नहीं करूणा भाव  उमड़ता है 
उस का भी हित हो ये ही प्रयत्न रहता है ......
काश मैं जान पाती इस सत्य को ,तो मैं अपनी आँखों पर पड़े संकीर्णता के 
जाले को नोच देती अपने ही नाखुनो से ,और अपनी आँखों के नए उजाले से 
देख पाती प्रेम की व्यापकता हो ,फिर प्रेम की परिधि बहुत छोटी नहीं रह जाती मेरे लिए.
काश मैं जान पाती,  पर अभी मुझे नहीं पता ..................

Friday, 6 January 2012

बैठे है

खुद को जाने कितने ही पर्दों में वो  छुपाये बैठे है 
और फिर चेहरे पर एक मुखौटा भी लगाये बैठे है  

कैसे समझेगे और कैसे जानेगे हम,के क्या है वो 
झांकती  हैं जो मुखौटे से,वो आँखें भी झुकाए बैठे है 

हाथों के  इशारे  से  भी  तो कुछ   समझाते  नहीं है 
और  होठों   पर    भी   चुप के  ताले  लगाये  बैठे है 

कब तलग न खोलेगे वो राज़ अपना ,कभी तो हद होगी 
उसी हद की आस में ,सर को उनके दर पे झुकाए बैठे है